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उल्लेख किया। कुछ विशिष्ट विषयों की काव्य के जीवनस्त्रोतों (काव्यमाताओं) के रूप में स्वीकृति
तथा व्युत्पत्ति के स्वरूप में औचित्य के महत्व की अभिवद्धि सर्वप्रथम आचार्य राजशेखर द्वारा की गई।
परवर्ती आचार्य क्षेमेन्द्र ने व्युत्पत्ति के औचित्यपरक स्वरूप से प्रभावित होकर औचित्य को ही रससिद्ध
काव्य का जीवन स्वीकार किया।
'काव्यमीमांसा' में काव्यहेतु अभ्यास की काव्य के जीवन स्त्रोतों के अन्तर्गत स्वीकृति उसके
महत्व के अभिवर्धन में परम सहायक है। अभ्यास के उपायों का कवि के समक्ष प्रस्तुतीकरण मौलिक
विषय तो है ही, आचार्य राजशेखर द्वारा विवेचित कवि की अवस्थाएँ कवि के विकास की क्रमिक
स्थिति को भी स्पष्ट करती हैं। 'काव्यमीमांसा' से प्रभावित होकर आचार्य क्षेमेन्द्र ने भी शिष्य की
अवस्था से कवि बनने तक का विकासक्रम 'कविकण्ठाभरण' में प्रस्तुत किया। अभ्यास के उपायों का
विवेचन भी क्षेमेन्द्र द्वारा 'कविकण्ठाभरण' में तथा वाग्भट द्वारा 'वाग्भटालङ्कार' में किया गया। विभिन्न
कवियों के लिए विभिन्न प्रकार के अभ्यास की आचार्य राजशेखर की स्वीकृति से आचार्य कुन्तक तथा
आचार्य क्षेमेन्द्र भी प्रभावित हुए। आचार्य कुन्तक ने विभिन्न कवियों के स्वभावानुसार उनके काव्याभ्यास
के वैविध्य को स्वीकार किया।
___ 'काव्यमीमांसा' में निरन्तर अभ्यास के परिणामस्वरूप उत्पन्न काव्यपरिपक्वता की क्रमिक
स्थितियाँ 'काव्यपाक' शब्द से अभिहित हैं। शब्द और अर्थ के विशिष्ट साहित्य से उत्कृष्ट काव्य निर्मित
होता है। आचार्य राजशेखर ने काव्यनिर्माण की परिपक्वता तक पहुँचाने वाले शब्दपाक तथा अर्थपाक की विशद विवेचना की है और काव्य के दो पक्ष स्वीकार किए हैं-सौशब्द्य तथा रसनिर्वाह । परवर्ती आचार्य महिमभट्ट का रसप्रतीति की प्रधानता मानने वाला एक मत 'काव्यमीमांसा' में उल्लिखित पाक
का सम्बन्ध रस से मानने वाले अवन्तिसुन्दरी के मत से समानता रखता है। आचार्य राजशेखर के परवर्ती
आचार्यों में महिमभट्ट, भोजराज, विद्याधर, पण्डितराज जगन्नाथ तथा केशवमिश्र के द्वारा भी काव्यपाक
का उल्लेख किया गया। आचार्य राजशेखर द्वारा रस काव्यात्मा रूप में स्वीकृत था। परवर्ती आचार्य
महिमभट्ट ने रसाभिव्यक्तिपरक कविव्यापार को काव्यसंज्ञा दी तथा आचार्य विश्वनाथ ने भी रसयुक्त
वाक्य को काव्यलक्षण रूप में प्रस्तुत किया।