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हाथियों की सवारी सैर सपाटे के लिए उचित होती है। विलासिनियों की शयनशय्या ऊँचे भवनों की अट्टालिकाओं के चौबारों में बनती है। कस्तूरी मिश्रित चतुः सम का सेवन किया जाता है।
काव्य में ऋतु वर्णन की परम्परा प्राचीन है। भरतमुनि ने 'नाट्यशास्त्र' में विभिन्न ऋतुओं के प्रदर्शन हेतु अनेक निर्देश दिए हैं। वर्षाकाल का प्रदर्शन कदम्ब, नीप, कुटज वृक्षों, घासयुक्त मैदानों, बीर बहूटियों, बादलों की वायु के सुखद स्पर्शों से करना चाहिए तो नाट्य में वर्षा की रात्रि को बादलों के समूह के गम्भीर नाद, धाराप्रवाह बौछार, बिजली चमकने और गरजने के द्वारा प्रदर्शित करना चाहिए।। महाकवि कालिदास की रचना 'ऋतुसंहारम्' में छह ऋतुओं का सुन्दर विवेचन किया गया है। इसके द्वितीय सर्ग में महाकवि ने वर्षावर्णन करते हुए तत्कालीन प्रकृति का सरस चित्रण किया है।
'ऋतुसंहार' में वर्णित वर्षा ऋतु :
बादलों से युक्त आकाश (2/2), प्यासे चातकपक्षी, जल के भार से झुके हुए, कर्णप्रि, गर्जन करने वाले, अत्यधिक जलधारा बरसाने वाले बादल (2/3), नवीन घासों के हरे-हरे अंकुरों से युक्त, वीरबहूटियों से परिव्याप्त पृथ्वी (2/5), मधुर ध्वनि करता हुआ, पंख फैलाकर नृत्य करता हुआ मयूर (2/6), जल के प्रवृद्ध-वेग से दोनों तटों के वृक्षों को उखाड़ती हुई मटमैले जल वाली नदियाँ (2/7), बादलों के कारण प्रगाढ़ तिमिराच्छन्न रात्रि में बिजली की चमक (2/10), पीला-पीला, कीड़े-मकोड़े, घास-फूस से युक्त, मेढकों को डराने वाला जल (2/13), पत्र, पुष्पविहीन नलिनी (2/14), भ्रमरसमूहों से युक्त, मद जल से सुशोभित हाथियों के कपोल (2/15), सर्वत्र झरनों से युक्त पर्वत (2/76), कदम्ब, साल, अर्जुन और केतकी में पुष्प (2/17), जूही, मालती तथा बकुल में पुष्प (2/24) इन्द्रधनुष से सुशोभित बादल (2/22) - वर्षा ऋतु का यह मनोहारी स्वरूप महाकवि कालिदास के 'ऋतुसंहार' में
1. कदम्बनीपकुटजै: शाद्वलै : सेन्द्रगोपकै : मेघवातोः सुखस्पशैं : प्रावृट् कालं प्रदर्शयेत् । 35।
मेघौधनादैर्गम्भीरैर्धाराप्रपतनैस्तदा। विद्युन्निर्घातघोषैश्च वर्षारात्रं समादिशेत् । 361
(नाट्यशास्त्र - पञ्चविश अध्याय)