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असमर्थ पाते हैं। नवीन कवि के लिए ऋतुओं के वर्णनीय विषयों का उल्लेख 'काव्यमीमांसा' में प्रस्तुत है, जिससे वे ऋतुओं का वर्णन करते समय अपने काव्य को दोषों से दूर रख सकें।
काव्यमीमांसा में वर्णित वर्षा ऋतु :
वृक्षजगत् का परिवर्तन :- बाँसों में नई कोपल, सल्लकी, साल, शिलीन्ध्र, जूही के वृक्षों में नए पत्ते और पुष्प। लांगली में पुष्प। जंगलों में नीली के पत्तों की अधिकता होती है। कुटज कुसुमों की कलियाँ खिल जाती हैं। कदम्ब के पुष्पसमूह फूट पड़ते हैं, उनमें केसर उगते हैं। कदम्वों से आकाश कलुषित हो जाता है। धव (धाय) के पुष्प यौवन प्राप्त करते हैं। अर्जुन के वृक्ष नवीन मञ्जरियों से भर जाते हैं। केतकी में कलियाँ फूटती हैं। बेंत जल प्रवाह से निरन्तर हिलते रहते हैं।
पशुपक्षियों की गतिविधियाँ :
वर्षाऋतु में बगुलियों का गर्भधारण, हरी घासों पर बीर बहूटियाँ, चकोरों का हर्षित होना, वनों में चतुर्दिक् चलते हुए चपल चातक, हरिणों में प्रेम का उदय आदि विषय वर्णित होते हैं। मेढ़कों के शब्द सर्वत्र सुनाई देते हैं। सर्प मदोन्मत्त होकर विचरण करते हैं । मोरों के झुण्ड नृत्य करते हैं । जलचर पक्षी प्रसन्न हो जाते हैं।
वर्षाऋतु के अन्य वैशिष्ट्य :
वर्षाकाल उष्णता का अन्त कर देता है। वियोगियों के हृदय पर कामविष को उत्पन्न करने वाले
विप (जल) की वर्षा करते हुए मेघों का आगमन होता है। निरन्तर गर्जना करते हुए यह मेघ आकाश में
व्याप्त धूल को मिटा देते हैं । सूर्य की अंगारमय किरणों से तप्त भूमि पर वर्षा का प्रथम जल गिरने से उससे मनोहर गन्ध निकलती है। जलधारा से धुले पर्वत सुन्दर प्रतीत होते हैं। नदियाँ प्रवाह के वेग से तटों को तोड़ती हुई बहती हैं । राजाओं के यात्रा प्रसङ्ग स्थगित हो जाते हैं । यतियों तथा सन्यासियों का प्रचार रुक जाता है। वियोगिनी रमणियाँ अपने प्रवासी पतियों के आगमन की प्रतीक्षा करती हैं। पथिकों के झुण्ड अपने-अपने घर पहुँचने के लिए व्याकुल हो जाते हैं। सर्वत्र मार्ग कीचड़युक्त होने के कारण