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ग्रीष्म ऋतु, आषाढ़ से चार मासों तक वर्षा ऋतु, कार्तिक से चार मासों तक हेमन्त ऋतु का विवेचन है ।।
'काव्यमीमांसा' में विभिन्न ऋतुओं की वायु का दिशानिर्देश :
आचार्य राजशेखर ने कवियों के लिए प्रत्येक ऋतु में प्रवाहित वायु की दिशा का महत्वपूर्ण प्रसङ्ग प्रस्तुत किया है। यद्यपि वे वायु की दिशा के संदर्भ में कविसमय की ही सर्वाधिक प्रामाणिकता स्वीकार करते हैं। विभिन्न आचार्यों ने वर्षा ऋतु में पाश्चात्य वायु का प्रवाहित होना स्वीकार किया है, किन्तु आचार्य राजशेखर वर्षा ऋतु में कविसमय के अनुसार कवियों को पूर्वी वायु के वर्णन का निर्देश देते हैं 2 शरद् ऋतु में वायु की अनिश्चित दिशा का, हेमन्त ऋतु में वायु की पश्चिम दिशा तथा उत्तर दिशा का, शिशिर ऋतु में भी हेमन्त के समान उत्तर तथा पश्चिम दिशा की वायु का, वसन्त में दक्षिण दिशा की वायु का तथा ग्रीष्म ऋतु में अनिश्चित दिशा की वायु का तथा नैऋत्य दिशा की वायु का वर्णन करने का निर्देश कवियों को 'काव्यमीमांसा' से प्राप्त हुआ है कविशिक्षा की दृष्टि से कालगणना के संदर्भ में इन विषयों का उल्लेख करते हुए आचार्य राजशेखर ने अपनी मौलिकता का परिचय दिया है।
'काव्यमीमांसा में वर्णित ऋतुचक्र' :
संवत्सर की छह ऋतुओं का विविधतापूर्ण वर्णन कवि के काव्य को सरस, सुन्दर, मनोहारी रूप में सहदयों के सम्मुख प्रस्तुत करता है। अतः कविगण ऋतुवर्णन का मोह त्याग करने में अपने को
1 ऋतु संवत्सरो ग्रीष्मो वर्षा हेमन्त इति। त्रयस्तपस्याद्याश्चत्वारो मासा ग्रीष्मर्तुः शुच्याद्याश्चत्वारो मासा वर्षतुः।
कार्तिकाद्याश्चत्वारो मासा हेमन्तर्तुरित्येवम् । त्रय ऋतवो यत्र स संवत्सरः।
यास्क (निरुक्त) अध्याय -4, पाद -4, खण्ड - 27 2 तत्र 'वर्षासु पूर्वो वायुः' इति कवयः। 'पाश्चात्यः पौरस्त्यस्तु प्रतिहन्ता' इत्याचार्याः। तदाहुः - 'पुरोवाता हता प्रावृट् पाश्चाद्वाता हता शरत्' इति। --------- 'वस्तुवृत्तिरतन्त्रं, कविसमयः प्रमाणम्' इति यायावरीयः।
(काव्यमीमांसा - अष्टादश अध्याय) 3. शरद्यनियतदिक्को वायुः। ----- 'हेमन्ते पश्चात्यो वायुः' इत्येके। 'उदीच्य' इत्यपरे। 'उभयमपि' इति यायावरीयः।
-------- शिशिरेऽपि हेमन्तवद्दीच्यः पाश्चात्यो वा ------- बसन्ते दक्षिणः।--------- 'अनियतदिक्को वायुग्रीष्मे' इत्येके। नैऋत इत्यपरे। 'उभयमपि' इति यायावरीयः। (काव्यमीमांसा - अष्टादश अध्याय)