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________________ [270] में समाज के किस श्रेणी के कलाकार बैठते थे- 'काव्यमीमांसा' से यह जानकर तात्कालिक समाज में विभिन्न भाषाओं के स्तर तथा क्रमिक महत्व से परिचय प्राप्त किया जा सकता है। 'काव्यमीमांसा' में राजासन के उत्तर में संस्कृत कवियों के बैठने के स्थान का निर्देश है। संस्कृत कवियों की पंक्ति में वेद आदि के ज्ञाता विद्वान्, दर्शनशास्त्रवेत्ता, पौराणिक, धर्मशास्त्री, वैद्य, ज्योतिषी आदि का तथा इसी स्तर के अन्य व्यक्तियों का स्थान निश्चित था राजासन के पूर्व में प्राकृत भाषा के कवि तथा उनके क्रम में ही नट, नर्तक, गायक, वादक, कथक, अभिनेता, हाथ के तालों पर नाचने वाले तथा अन्य इसी श्रेणी के लोग बैठते थे। राजासन के पश्चिम में अपभ्रंश भाषा के कवियों का तथा उनकी पंक्ति में चितेरे, जड़िए, जौहरी, स्वर्णकार, बढ़ई आदि कलाकारों के स्थान का निर्देश दिया गया है। राजासन के दक्षिण में पैशाची भाषा के कवि तथा इसी क्रम में विट, वेश्या, तैराक, ऐन्द्रजालिक आदि कलाकारों का स्थान था। इस प्रकार विद्वान्, कवि और कलाप्रेमी राजा अपनी सभाओं में कवियों तथा विद्वानों के साथ समाज के प्रत्येक श्रेणी के कलाकारों को स्थान देता था। सभी भाषाओं के कवियों को आदर प्राप्त था। कवियों तथा कलाकारों का ऐसा सम्मान प्रत्येक युग में उनके प्रोत्साहन हेतु अनिवार्य होना चाहिये। आचार्य राजशेखर ने जैसे काव्यदरबार का प्रत्यक्षदर्शन किया था, उसे ही सम्भवत: 'काव्यमीमांसा' में प्रस्तुत किया, किन्तु यह सूक्ष्म विवेचन तत्कालीन साहित्यकारों, कलाकारों आदि की वास्तविक स्थिति का परिचायक होने के कारण बहुत उपयोगी है। तस्य चोत्तरतः संस्कृताः कवयो निविशेरन् बहुभाषाकवित्वे यो यत्राधिकं प्रवीणः स तेन व्यपदिश्यते । यस्त्वनकत्र प्रवीणः स संक्रम्य तत्र तत्रोपविशेत् । ततः परं वेदविद्याविदः प्रामाणिका: पौराणिका : स्मार्त्ता भिषजो मौहूर्त्तिका अन्येऽपि तथाविधाः । पूर्वेण प्राकृता: कवयः ततः परं नटनर्तकगायनवादनवाण्जीवनकुशीलवतालावचरा अन्येऽपि तथाविधा पश्चिमेनापभ्रंशिनः कवयः ततः परं चित्रलेप्यकृतो माणिक्यबन्धकावैकटिकाः स्वर्णकारवर्द्धकिलोहकारा अन्येऽपि तथा विधाः । दक्षिणतो भूतभाषा कवयः, ततः परं भुजङ्गगणिकाप्लवकशौभिकजम्भकमल्लाः शस्त्रोपजीविनोऽन्येऽपि तथाविधाः । (काव्यमीमांसा दशम अध्याय)
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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