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(क) अरोचकी, (ख) सतृणाभ्यवहारी, (ग) मत्सरी, (घ) तत्वाभिनिवेशी।
आचार्य राजशेखर द्वारा उल्लिखित प्रथम दो अरोचकी तथा सतृणाभ्यवहारी भावकों के नाम ही आचार्य वामन के कवियों के नाम हैं। अरोचकी विवेकी होने के कारण काव्यविद्या के अधिकारी शिष्य हैं किन्तु अविवेकयुक्त सतृणाभ्यवहारी कवि काव्यविद्या के शिष्य बनने का अधिकार नहीं प्राप्त करते ।। आचार्य वामन के कवि तथा आचार्य राजशेखर के भावकों के नाम की समानता का आधार उनका विवेक और अविवेक ही है।
काव्यमीमांसा में वर्णित अरोचकी भावकों के नाम से स्पष्ट है कि उन्हें कोई भी रचना शीघ्र
रुचिकर नहीं लगती। अरोचकता दो प्रकार की होती है2-(क) नैसर्गिकी अरोचकता :-यह स्वाभाविक अरुचि सैकड़ों संस्कारों से दूर नहीं हो सकती। जैसे रांगा सैकड़ों बार संस्कार किए जाने पर भी अपनी कालिमा नहीं छोड़ता। (ख) ज्ञानजन्य अरोचकता :-यदि भावक की अरुचि ज्ञानजन्य है तो किसी विशिष्ट, अलौकिक रचना के वास्तविक गुणों को देखकर वह उसकी श्रेष्ठता स्वीकार करने में तत्पर भी हो सकता है।
सतृणाभ्यवहारी भावक :
यह सम्भवतः समाज के सर्वसाधारण जन हैं। यह नवीन आलोचक उत्सुकतावश सभी रचनाओं पर कुछ न कुछ कहते रहते हैं 3 इन आलोचकों की विवेक रहित प्रतिभा गुण, दोष की परख करने में असमर्थ होती है। इसी कारण यह अपनी आलोचना को सर्वाङ्गीण नहीं बना पाते, रचना का कुछ न कुछ गुण, दोष इनकी दृष्टि से छूट ही जाता है।
1. अरोचकिनः सतृणाभ्यवहारिणश्च कवयः। (1/2/1) पूर्वे शिष्याः विवेकित्वात् (1/2/2) नेतरे तद्विपर्ययात् ( 1/2/3)
काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति (वामन) 2 "अरोचकिता हि तेषां नैसर्गिकी ज्ञानयोनिर्वा। नैसर्गिकी हि संस्कारशतेनाऽपि रङ्गमिव कालिकां ते न जहति।
ज्ञानयोनौ तु तस्यां विशिष्टज्ञेयवतिवचसि रोचकितावृत्तिरेव" इति यायावरीयः काव्यमीमांसा - (चतुर्थ अध्याय) 3. किञ्च सतृणाभ्यवहारिता सर्वसाधारणी तथाहि व्युत्पित्सो: कौतुकिन: सर्वस्य सर्वत्र प्रथम सा। प्रतिभाविवेकविकलता
हि न गुणागुणयोविभागसूत्रं पातयति । ततो बहु त्यजति बहु च गृहणाति-..-...- - - - - - काव्यमीमांसा (चतुर्थ अध्याय)