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________________ [260] मत्सरी भावक: जैसा कि इनके नामसे ही स्पष्ट है यह अपने हृदय की ईर्ष्याभावना से कभी भी उबर नहीं पाते थे। सदैव काव्य के दोषदर्शन में ही प्रयत्नशील रहते थे। दूसरों के काव्य के गुणों के वर्णन में वे मौन रहने की ही इच्छा रखते थे।1 व्यक्तिगत कारणों से यह काव्य की अन्यायपूर्ण आलोचना ही करते थे। इन आलोचकों की उपस्थिति समाज तथा सत्कवि दोनों को दु:खी करती थी। कुछ कवि तो इनके कारण काव्यनिर्माण ही त्याग देते थे। ऐसे ही एक दु:खी कवि का आचार्य राजशेखर ने उल्लेख किया है।2 तत्वाभिनिवेशी भावक : आचार्य राजशेखर का तत्वाभिनिवेशी भावक श्रेष्ठ समालोचक के सभी गुणों को अपने अन्दर समेटे हुए है। यह काव्य के तत्व के वास्तविक अन्वेषक हैं। किन्तु यह समाज में हजारों में एक की संख्या में ही उपलब्ध होते हैं। किसी कवि को बड़े ही पुण्य प्रभाव से उसके रचनाश्रम को समझने वाला विद्वान, निष्पक्ष तथा यथार्थ समालोचक मिलता है। यह समालोचक काव्य के शब्दों की रचनाविधि का सम्यक विवेचन करते हैं, कवि की सूक्तियों तथा अलौकिक विचारों से आनन्दित होते हैं। काव्य के सघन रसामृत का पान करते हैं 3 काव्य के तत्व के भीतर प्रवेश करके काव्यरचना के गूढ़ तात्पर्य का अन्वेषण कर लेते हैं। काव्य के अन्तर्निहित छिपे हुए गुण, दोषों को भी समझकर उचित 1. मत्सरिणस्तु प्रतिभातमपि न प्रतिभातं, परगुणेषु वाचंयमत्वात्। स पुनरमत्सरी ज्ञाता च विरलः। काव्यमीमांसा - (चतुर्थ अध्याय) 2 कस्त्वं भोः कविरस्मि काप्यभिनवा सूक्तिः सखे पठ्यतां, त्यक्ता काव्यकथैव सम्प्रति मया कस्मादिदं श्रूयताम् यः सम्यग्विविनक्ति दोषगुणयोः सारं स्वयं सत्कविः सोऽस्मिन्भावक एव नास्त्यथ भवेदैवान्न निर्मत्सरः।। काव्यमीमांसा - (चतुर्थ अध्याय) 3. तत्त्वाभिनिवेशी तु मध्येसहस्त्रं यद्येकस्तदुक्तम् शब्दानां विविनक्ति गुम्फनविधिनामोदते सूक्तिभिः सान्द्रं लेढि रसामृतं विचिनुते तात्पर्यमुद्रां च यः। पुण्य : सङघटते विवेक्तविरहादन्तर्मुखं ताम्यताम् केषामेव कदाचिदेव सधियां काव्यश्रमज्ञो जनः।। काव्यमीमांसा - (चतुर्थ अध्याय)
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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