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________________ [255] तुरन्त कर लेता है, क्योंकि उसके विमल हृदय में काव्य की मौलिक अनुभूति अपने आप को उसी क्षण प्रतिबिम्बित करती है। लौकिक पदार्थो के कवि की प्रतिभा द्वारा प्रस्तुत सुन्दरतम स्वरूप को रसिक अपनी प्रतिभाबल से ही ग्रहण करते हुए रसानुभूति करता है। आचार्य आनन्दवर्धन का सहृदयत्व का तात्पर्य रसज्ञता है। वह श्रेष्ठ काव्य का, काव्य की चारुता का, सत्कवि तथा सहृदय का सम्बन्ध ध्वनिकाव्य से ही मानते हैं। उनका विचार है कि व्यङ्गथार्थ में ही सहृदयहृदयहरणक्षमता होती है। आचार्य कुन्तक के अनुसार भी काव्य का अर्थ सहृदयहृदयाह्लादकारित्व रूप वैशिष्ट्य से युक्त होता है ? आचार्य मङ्खक तो साहित्यविद् के अभाव में कवि के गुणों का प्रसार असम्भव मानते हैं। तैलबिन्दु केवल जल में ही तत्काल विस्तार पाता है, अन्यत्र नहीं काव्यमीमांसा में 'भावक' तथा समालोचना को पर्याप्त महत्व तथा विस्तार प्राप्त हुआ। श्रेष्ठकवित्व तथा श्रेष्ठ भावकत्व दोनों एक ही व्यक्ति में होना कठिन है। ऐसी प्रतिभाएँ दुर्लभ होती हैं। किन्तु आचार्य राजशेखर यह स्वीकार करते हैं कि श्रेष्ठ कवि में अपने काव्य की यथार्थ समालोचना का गुण होना चाहिए क्योंकि रसावेश में रचित काव्य का पुनः परीक्षण उसकी पूर्णशुद्धि के लिए आवश्यक 1 द्वितीयस्मिंस्तु पक्षे रसज्ञतैव सहृदयत्वमिति। तथाविधैः सहृदयैः संवेद्यो रसादिसमर्पणसामर्थ्यमेव नैसर्गिक शब्दानां विशेष इति व्यञ्जकत्वाश्रय्येव तेषां मुख्यं चारुत्वम्। -----ध्वनिनिरूपणनिपुणा हि सत्कवयः सहृदयाश्च नियतमेव काव्यविषये परां प्रकर्षपदवीमासादयन्ति। (ध्वन्यालोक-तृतीय उद्योत) 2 शब्दो विवक्षिार्थंकवाचकोऽन्येषु सत्स्वपि अर्थः सहृदयाह्लादकारिस्वस्पन्दसुन्दरः।9। (वक्रोक्तिजीवित - (कुन्तक) (प्रथम उन्मेष) 3 बिना न साहित्यविदा परत्र गुण: कथञ्चित् प्रथते कवीनाम् आलम्बते तत्क्षणमम्भसीव विस्तारमन्यत्र न तैलबिन्दुः (मङ्खक) ('रसगङ्गाधर' की भूमिका से उद्धृत))
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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