SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [248] पड़ता है । कवि की कवित्वशक्ति, कारयित्री प्रतिभा, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास परस्पर सापेक्ष हैं। काव्य के सुन्दरतम रूप के प्रस्तुतीकरण में कवि के आन्तरिक तथा बाह्यगुण प्रतिभा, शास्त्रज्ञान, सांसारिक विषयों का सूक्ष्म निरीक्षण, छन्दों इत्यादि का ज्ञान, अभ्यास प्राप्त कुशलता सभी कारण बनते हैं। यद्यपि कवि की व्युत्पत्ति तथा अभ्यासप्राप्त कुशलता आदि को सक्रिय बनाने में उसकी कवित्वशक्ति तथा कारयित्री प्रतिभा की ही प्रधानता होती है। प्राथमिक अवस्था में कवि को अपने भाव तथा भाषा को अन्तिम स्वरूप देने के लिए पुनः पुनः प्रयत्नशील होना पड़ता है, क्योंकि वह शब्दों, वाक्यों, अलङ्कारों, बिम्बों आदि में संशोधन करते हुए भी पूर्णत: सन्तुष्ट नहीं हो पाता। काव्य के शब्दादि में परिवर्तन की इच्छा करने वाला कवि संसार के समक्ष श्रेष्ठ कवि के रूप में उपस्थित नहीं होता क्योंकि सहृदयजनों के समक्ष उसका प्रयास ही प्रतिबिम्बित होता है, सुन्दरतम भाव तथा भाषा नहीं। पुनः पुनः अभ्यास से कवि की काव्यरचना के प्रति आकर्षण की अभिवृद्धि होती जाती है और उसकी रचना का भी परिष्कार और परिमार्जन होता जाता है ।। उसकी काव्यवस्तु भाषा, भाव आदि की दृष्टि से सुन्दर से सुन्दरतम तक पहुँच जाती है। अभ्यास तथा व्युत्पत्ति रूप बाह्य उपकरणों से पूर्णत: प्रकट कवि की जन्मसिद्ध प्रतिभा ही कवि को सफलता की चरमसीमा पर पहुँचाती है।- इस तथ्य को पूर्णतः स्वीकार करने वाले आचार्य राजशेखर ने 'काव्यमीमांसा' में अभ्यासी कवियों के लिए ही 'हरण' तथा 'कविचर्या' विषयक विवेचन प्रस्तुत किए हैं। आचार्य राजशेखर कवि बनने के प्रयत्न को उस समय विडम्बना ही समझते थे, जब स्वाभाविक काव्यरचना शक्ति न हो, शास्त्रों में परिपक्वता तथा अभ्यासजन्यकुशलता भी न हो ऐसी स्थिति में तो कवि बनना तभी संभव है जब सरस्वती के तन्त्र, मन्त्र के प्रयोग से कवित्वसिद्धि प्राप्त की गई हो। अतः 1 यथा यथाभियोगश्च संस्कारश्च भवेत्कवेः। तथा तथा निबन्धानां तारतम्येन रम्यता ॥ ....... लीढाभिधोपनिषदां सविधे बुधानामभ्यस्यतः प्रतिदिनं बहुदृश्वनोऽपि। किञ्चित्कदाचन कथञ्चन सूक्तिपाकाद्वाक्तत्त्वमुन्मिषति कस्यचिदेव पुंसः॥ सिद्धिः सूक्तिषु सा तस्य जायते जगदुत्तरामूल्यच्छायां न जानाति यस्याः सोऽपि गिरा (काव्यमीमांसा - दशम अध्याय) 2 न निसर्गकविः शास्त्रे न क्षुण्णः कवते च यः। विडम्बयति सात्मानमाग्रहग्रहिल: किल । (काव्यमीमांसा-चतुर्थ अध्याय)
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy