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यह निश्चित है कि कवि के सभी सुन्दरतम वचन उसकी प्रतिभा, व्युत्पत्ति तथा अभ्यासजन्य कौशल के ही परिणाम होते हैं और कवि प्रतिभा और व्युत्पत्ति से सम्पन्न, अभ्यास द्वारा शिल्पचातुर्य तथा वाग्विदग्धता प्राप्त करने वाला सरस वर्णन में निपुण व्यक्ति होता है। अनन्य मनोवृति से काव्यरचना करते हुए कवि सरस्वती की कृपा से अपनी सूक्तियों में अलौकिक सिद्धि प्राप्त करता है। 1
कवि की सर्वगुणसम्पन्नता को स्वीकार करते हुए 'काव्यशिक्षा' नामक ग्रन्थ में आचार्य विनयचन्द्र ने उसे विविध विशेषणों से अलङ्कृत किया है। उनका कवि शब्दार्थवादी तत्वज्ञ, माधुर्याजप्रसाधक, दक्ष, वाग्मी, नवीन अर्थ की उत्पत्ति में रुचियुक्त, शब्दार्थवाक्य के दोषों का जाता चित्रकृत, कविमार्गवित्, सभी अलङ्कारों का ज्ञाता, रसवेत्ता, बन्धसौष्ठवी, षड्भाषाविधिनिष्णात, षड्दर्शनविचारविद् नित्याभ्यासी, लोकज्ञाता तथा छन्दशास्त्र का ज्ञाता है 2
संसार में कवि और उसके कवित्व की महत्ता सर्वमान्य है। आचार्य राजशेखर की 'काव्यमीमांसा' में वर्णित 'कविचर्या' तत्कालीन कवियों के जीवन के उच्चस्तर तथा उनकी सम्भ्रान्तता को प्रकट करती है। कवि साधारणजन जैसे नहीं थे। ज्ञानगरिमा से परिपूर्ण कवि राजाओं के तथा समाज के श्रद्धेय थे। इसी कारण वे अपने आश्रयदाता राजा तथा जनता की रूचियों का पर्याप्त ध्यान रखते थे और उन्हीं के अनुरूप विषय तथा भाषा में काव्यरचना करते थे । आचार्य राजशेखर ने कवि को यह भी निर्देश दिया कि लोकरूचि तथा राजरूचि का ध्यान रखने की प्रक्रिया में वह कभी भी आत्मा का तिरस्कार न करे 13, क्योंकि सर्वथा किसी के वशीभूत होकर की गई काव्यरचना की श्रेष्ठता में संदेह हो सकता है। इसके लिए कवि को आत्मनिरीक्षण अवश्य करना चाहिए, क्योंकि कवि को लोक के समक्ष
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1. इत्यनन्यमनोवृत्तेर्निशेषेऽस्य क्रियाक्रमे । एकपत्नीव्रतं धत्ते कवेर्देवी सरस्वती ॥ (काव्यमीमांसा - दशम अध्याय) कविः शब्दार्थवादी तत्वज्ञी, माधुर्योजप्रसादकः दक्षी, वाग्मी नवार्थानामुत्पत्तिप्रियकारकः ॥ 153 1 शब्दार्थवाक्यदोषज्ञश्चित्रकृत् कविमार्गवित् ज्ञातालङ्कारसर्वस्वो रसविद् बन्धसौष्ठवी ॥ 14 ॥ पद्मावतिधिनिष्णातः षड्दर्शनविचारविद् नित्याभ्यासी च लोकज्ञश्छन्दः शास्त्रपठिष्ठधी 155
(चतुर्थ परिच्छेद) काव्यशिक्षा (विनय चन्द्रसूरि ) । 3. जानीयाल्लोकसाम्मत्यं कविः कुत्र ममेति च । असम्मतं परिहरेन्मतेऽभिनिविशेत च ॥ जनापवादमात्रेण न जुगुप्सेत चात्मनि। जानीयात्स्वयमात्मानं यतो लोको निरङ्कुशः ॥ (काव्यमीमांसा दशम अध्याय)
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