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जो कवि ध्वनि से युक्त काव्य रचना करते हैं, उनमें भावसाम्य होने पर भी नवीनता तथा मौलिकता अवश्य होगी। इनके काव्य में किसी से बिम्ब तथा चित्रवत् साम्य आ ही नहीं सकता, क्योंकि ध्वनि का स्पर्श ही अर्थों को नवीन बना देता है-उसी रूप में नहीं रहने देता। यदि ध्वनि के स्थल में कवि का किसी अन्य कवि से भावसाम्य होगा तो केवल देहवत् ही, अन्यथा उसके द्वारा वर्णित अर्थ अपूर्व तथा मौलिक ही होगा। कवियों की बुद्धि सादृश्य के कारण उनमें भाव साम्य आ जाना तो सामान्य सी बात है, किन्तु उस भाव साम्य का निकृष्ट रूप तब उपस्थित हो जाता है जब कवि के काव्य में व्यङ्गत्यार्य का संस्पर्श न हो। भाव साम्य का यह निकृष्ट रूप किसी पूर्व अर्थ के प्रतिबिम्ब रूप में अथवा चित्र रूप में प्रस्तुत होता है। अतः भावसाम्य आने पर भी उसके निकृष्ट रूपों का-बिम्ब तथा चित्र का-निवारण केवल अर्थ में व्यङ्गयार्थ की योजना से ही सम्भव है।
अधिकतर अर्थ वाल्मीकि, व्यास आदि पूर्व महाकवियों द्वारा वर्णित हो ही चुके हैं, फिर उनके नवीनत्व का कारण केवल उनका ध्वनि और गुणीभूत व्यङ्गय के भेद रूप किसी अर्थ के रूप में वर्णित होना ही हो सकता है। सभी अर्थ किसी न किसी कवि द्वारा वर्णित हो ही चुके हैं-इस कारण काव्यार्थ का क्षेत्र सीमित है किन्तु इन परिमित अर्थों का भी क्षेत्र रसादि के परिवेश में विस्तृत हो सकता है-ऐसी आनन्दवर्धन की धारणा है। जिस प्रकार मधुमास में पुराने वृक्ष भी नवीन शोभा धारण करते हैं, उसी प्रकार रसपरिपोष सभी काव्यार्थों को नवीन बना देता है।
सभी अर्थ पूर्वस्पृष्ट ही होते हैं उनकी नवीनता तथा मौलिकता व्यङ्गय के स्पर्श से सम्भव है किन्तु पूर्व स्पृष्ट अर्थ कभी-कभी वाच्यार्थ रूप में भी जब कि उनमें देश, काल, अवस्था, अथवा स्वरूप आदि का भेद हो अनन्त तथा नवीन हो सकते हैं। इस प्रकार मूल अर्थों का ऐक्य होने पर भी अर्थ बाह्य भेदों से विभिन्न हो सकते हैं।
काव्य तथा काव्यार्थ की नवीनता तथा मौलिकता का प्रमाण है सहृदयों को नवीन सूझ तथा
नवीन स्फुरण से युक्त रूप में उसकी प्रतीति होना। जिस वस्तु के विषय में सहृदयों को यह अनुभूति हो
1. दृष्टपूर्वा अपि ह्यर्थाः काव्ये रसपरिग्रहात् सर्वे नवा इवाभान्ति मधुमास इव द्रुमाः ॥4॥
(ध्वन्यालोक - चतुर्थ उद्योत)