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________________ [232] कारण पूर्णतः मौलिक रचना करने में समर्थ हैं। परिवर्तक कवि दूसरों के ही अर्थों को उलट पुलट कर अपने शब्दों में परिवर्तित करते हैं। आच्छादक कवि दूसरों की रचनाओं से हरण करके भी उसे छिपाने में समर्थ होते हैं तथा संवर्गक कवि दूसरे का अर्थहरण करके अपने शब्दों में रखने में समर्थ होते हैं। इन चार कवियों का आचार्य राजशेखर ने नाम मात्र से उल्लेख किया है। इनका वैशिष्ट्य क्या है यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया है। इनका शब्दहरण के अध्याय में उल्लेख होने से केवल शब्दहरण से ही उन्हें सम्बद्ध मानने का उनका तात्पर्य रहा हो यह भी सम्भव है, किन्तु यह पूर्णत स्पष्ट नहीं है। फिर भी इनके नाम की दृष्टि से उत्पादक कवि का मौलिक रचना करने वाले चिन्तामणि कवि से, दूसरों के अर्थों को उलट पलट कर अपनी रचना में परिवर्तित करने वाले परिवर्तक कवि का दूसरों के अर्थों को विशिष्ट उल्लेख से युक्त करके अपने शब्दों में प्रस्तुत करने वाले कर्षक कवि से, दूसरों की रचनाओं में से किए गए हरण को छिपाने में समर्थ आच्छादक कवि का पूर्वरचना की मूल वस्तु लेकर अपने शब्दों में प्रस्तुत करने वाले द्रावक कवि से तथा दूसरों का अर्थहरण करके अपने शब्दों में प्रस्तुत करने वाले संवर्गक कवि का दूसरों के अर्थों को अपनी रचना में किञ्चित् शोभा से युक्त रूप में प्रस्तुत करने वाले चुम्बक कवि से ऐक्य स्वीकार किया जा सकता है। इसमें से उत्पादक कवि के सम्बन्ध में बाणभट्ट का विचार है कि इस प्रकार के कवि दुर्लभ हैं। 1 अर्थहरण प्रकारों की दृष्टि से परिवर्तक कवि को आलेख्यप्रख्य अर्थहरण से आच्छादक कवि को परपुरप्रवेशसदृश अर्थहरण से तथा संवर्गक कवि को प्रतिबिम्बकल्प अर्थहरण से सम्बद्ध माना जा सकता है। मौलिकता : कवि की मौलिकता को उसके सर्वाधिक उत्कृष्ट गुण के रूप में प्रायः सभी आचार्यों ने स्वीकार किया है। काव्य में जो अर्थ वर्णनीय है वे प्राचीन हैं या नवीन यह मौलिकता या नवीनता का क्षेत्र नहीं है। मौलिकता केवल इसी बात से सम्बद्ध है कि वर्णन करने वाला कवि किसी भी अर्थ को कितने 1 सन्ति श्वान इवासंख्या जातिभाजो गृहे गृहे उत्पादका न बहवः कवयश्शरभा इव ।6। हर्षचरित (बाणभट्ट प्रथम उस
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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