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किञ्चित् विशिष्ट उल्लेख सहित निवेश करना।। तुल्यदेहितुल्य का वैशिष्ट्य है-पूर्वरचना से भिन्न अर्थ, जो केवल अत्यन्त सादृश्य के कारण अभिन्न प्रतीत होता है। किन्तु कर्षक कवि तो पूर्व रचना के ही अर्थ को किञ्चित् विशिष्ट उल्लेख सहित अपनी रचना में अपनाता है, भिन्न अर्थ को नहीं-अत: इस कवि के अर्थ में तुल्यदेहितुल्य अर्थ का वैशिष्ट्य न मिलने के कारण उसे उससे सम्बद्ध नहीं माना
जा सकता।
चुम्बक तथा कर्षक दो विभिन्न कवि प्रकार स्वीकार किए गए हैं किन्तु उनमें विशिष्ट अन्तर नहीं है। दोनों ही पूर्व रचना के अर्थ को अपनी वाक्य रचना में अपनाते हैं। चुम्बक कवि पूर्व अर्थ को कुछ अतिरिक्त शोभा प्रदान करता है तथा कर्षक कवि अतिरिक्त विशिष्ट उल्लेख से पूर्व रचना के भाव को युक्त करता है।
चतुर्थ कवि प्रकार द्रावक का वैशिष्ट्य है-किसी पूर्व रचना के मूल अर्थ को अपनी रचना में नवीन रूप में इस प्रकार प्रस्तुत करना कि मूल अर्थ किसी पूर्व रचना का है यह भी ज्ञात न हो 2 यह कवि अर्थहरण के चतुर्थ प्रकार परपुरप्रवेशसदृश से पूर्णतः सम्बद्ध प्रतीत होता है क्योंकि मूल वस्तु का ऐक्य तथा रचना में सर्वथा भेद परपुरप्रवेशसदृश अर्थहरण भेद का वैशिष्ट्य है। इस प्रकार इन कवियों को पृथक् रूप से एक एक अर्थहरण से सम्बद्ध करना सम्भव नहीं है, क्योंकि परिभाषा की दृष्टि से आलेख्यप्रख्य तथा परपुरप्रवेशसदृश अर्थ से चुम्बक तथा द्रावक कवि तो सम्बद्ध किए जा सकते हैं, किन्तु भ्रामक तथा कर्षक कवि राजशेखर द्वारा दी गई उनकी परिभाषा को दृष्टि में रखते हुए प्रतिबिम्बकल्प तथा तुल्यदेहितुल्य अर्थ से सम्बद्ध नहीं किए जा सकते।
आचार्य राजशेखर ने हरण की ही दृष्टि से कवि विभाग करते हुए कवियों को कुछ अन्य नाम भी दिए हैं-उत्पादक, परिवर्तक, आच्छादक तथा संवर्गक उत्पादक कवि अपने प्रतिभा गण के
काव्यमीमांसा - (द्वादश अध्याय)
1 परवाक्यार्थमाकृष्य यः स्ववाचि निवेशयेत्।
सम्मुलेखेन केनापि स स्मृतः कर्षक: कविः॥ अप्रत्यभिज्ञेयतया स्ववाक्ये नवतां नयेत्।
यो द्रावयित्वा मूलार्थं द्रावकः स भवेत्कविः॥ 3 उत्पादकः कवि कश्चित्कश्चिन्च परिवर्तकः।
आच्छादकस्तथा चान्यस्तथा संवर्गकोऽपरः॥
काव्यमीमांसा - (द्वादश अध्याय)
काव्यमीमांसा - (एकादश अध्याय)