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इन कवियों को अलौकिक कहने का तात्पर्य उन्हें असाधारण कवियों की कोटि में रखना ही
है।
अर्थहरणकर्ता कवियों में से प्रथम भ्रामक कवि किसी प्राचीन रचना को अपनी बताकर प्रसिद्ध करता है। अपने इस कार्य में वह पूर्व कवि की अप्रसिद्धि आदि कारणों से सफल होता है।। यद्यपि रचना पूर्णतः किसी पूर्व कवि की है फिर भी वह लोगों को भ्रम में डाल देता है। यद्यपि इस अर्थकरणकर्ता कवि का आचार्य के कथानुसार प्रतिबिम्बकल्प अर्थहरण से सम्बन्ध माना जाना चाहिए किन्तु प्रतिबिम्ब कल्प अर्थ वह है जिसमें पूर्व रचना का सम्पूर्ण अर्थ होने पर भी केवल शब्द विन्यास की भिन्नता हो। परन्तु भ्रामक कवि तो पूर्व रचना को ही पूर्व कवि के अप्रसिद्धि आदि कारणों से अपनी नवीन रचना बताकर प्रचारित करता है । इस कवि की रचना में तो पूर्व रचना से वाक्यविन्यास की भी भिन्नता नहीं है। अत: इस भ्रामक कवि को उसकी परिचायक परिभाषा को दृष्टि में रखते हुए प्रतिबिम्बकल्प से सम्बद्ध मानना समीचीन नहीं है।
द्वितीय प्रकार के अर्थहरण आलेख्यप्रख्य में प्राचीन रचना की ही वस्तु (अर्थ) कुछ संस्कार कर दिए जाने से प्राचीन से भिन्न प्रतीत होने लगती है। इस दृष्टि से अर्थहरणकर्ता कवियों में चुम्बक कवि-इस आलेख्यप्रख्य अर्थ से सम्बद्ध माना जा सकता है क्योंकि चुम्बक कवि का वैशिष्ट्य है दूसरे कवि के अर्थ को अपने मनोहारी वाक्य के द्वारा कुछ अतिरिक्त शोभा से युक्त करते हुए प्रस्तुत करना 2
तृतीय प्रकार के तुल्यदेहितुल्य अर्थ भेद में पूर्व रचना से अर्थ का वस्तुतः भेद होने पर भी किसी अत्यन्त सादृश्य के कारण अभेद की प्रतीति होती है। अर्थहरणकर्ता कवियों का भेद अर्थहरण भेदों के आधार पर ही है। इस दृष्टि से कवि के तृतीय प्रकार कर्षक को तुल्यदेहितुल्य भेद से सम्बद्ध होना चाहिए-किन्तु कर्षक कवि का वैशिष्ट्य है-दूसरे के वाक्यार्थ को लेकर उसका अपनी रचना में
काव्यमीमांसा - (द्वादश अध्याय)
तन्वानोऽनन्यदृष्टत्वं पुराणस्यापि वस्तुनः।
योऽप्रसियादिभिर्धाम्यत्यसौ स्याद् भ्रामक: कविः ।। 2 यश्चुम्बति परस्यार्थं वाक्येन स्वन हारिणा।
स्तोकार्पितनवच्छायं चुम्बकः स कविर्मतः॥
काव्यमीमांसा - (द्वादश अध्याय)