SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [227] अतिरिक्त विशिष्टता का आधान कर देना चूलिका की तथा एक ही अर्थ का विशेष प्रकारों से वर्णन कन्द की विशेषता है। तैलबिन्दु में एक ही अर्थ उसी रूप में विस्तृत होता है। चूलिका में पूर्व अर्थ का सदृश अर्थ कुछ विशिष्टता के भी सहित तथा कन्द में कन्द या बीजभूत एक संक्षिप्त अर्थ अपने अनेक विशेष प्रकारों से वर्णित होता है। इस प्रकार अर्थ का किसी न किसी रूप में विस्तृत होना इन तीनों ही भेदों की विशेषता है। किन्तु जिन अर्थहरणों के यह भेद हैं उनकी परस्पर भिन्न मूलभूत विशेषताएं इनके विशिष्ट रूप के समान होने पर भी इन्हें परस्पर पृथक् करती रहती हैं। सङ्क्रान्तक एवं समक्रम : प्रतिबिम्बकल्प अर्थहरण का कहीं देखी गई वस्तु का सङ्क्रमण रूप सङ्क्रान्तक नामक भेद और आलेख्यप्रख्य का समान अर्थ का सङ्क्रमण रूप समक्रम नामक भेद परस्पर पर्याप्त रूप में समान हैं। समक्रम और सङ्क्रान्तक दोनों भेदों का सम्बन्ध एक समान ही प्रकार के अर्थवर्णन से है। एक स्थान का अर्थ दोनों में ही दूसरे स्थान में सङ्क्रमित हो जाता है, किन्तु सङ्क्रान्तक में यह सङ्क्रमण बिल्कुल उसी रूप में तथा समक्रम में उसी रूप में नहीं बल्कि कुछ पृथक् रूप में होता है। समान अर्थ की ही दूसरे स्थान पर नियोजना होना रूप एक समान वैशिष्ट्य दोनों में है। इन भेदों का आधार समान अर्थ का दूसरे स्थान पर सङ्क्रमण अथवा दूसरे विषय से सम्बद्ध हो जाना है। सङ्क्रान्तक में वही अर्थ पूर्व रचना में जिस स्थान पर वर्णित था दूसरी रचना में उससे भिन्न स्थान में वर्णित होता है, किन्तु उसी रूप में। समक्रम में वही समान अर्थ ही कहीं दूसरे वस्तु, विषय या स्थान से सम्बन्धित हो जाता है किन्तु अल्प संस्कार के साथ। समान अर्थ का सङ्क्रमण होना इन भेदों का समान वैशिष्ट्य है। सम्पुट एवं माणिक्यपुञ्ज : प्रतिबिम्बकल्प का दो भिन्न-भिन्न रचनाओं के भावों का एक ही स्थान पर ग्रहण करने वाला सम्पुट नामक भेद और तुल्यदेहितुल्य का बहुत से अर्थों का एक स्थान पर उपसंहार करने वाला दृष्टस्य वस्तुनोऽन्यत्र सङ्क्रमिति: माइक्रान्तम् सदृशसञ्चारणं समक्रमः काव्यमीमांसा (द्वादश याय) काव्यमीमांसा - (त्रयोदश अध्याय)
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy