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माणिक्यपुञ्ज नामक भेद पर्याप्त रूप में समान लगते हैं। प्रथम में दो रचनाओं के भाव ग्रहण किए जाते हैं, किन्तु द्वितीय में अनेक रचनाओं के भाव एक स्थान पर ग्रहण किए जाते हैं। प्रतिबिम्बकल्प के भेद सम्पुट में दो भिन्न-भिन्न रचनाओं के भाव एक स्थान पर बिल्कुल उसी रूप में ग्रहण किए जाते हैं तथा माणिक्यपुञ्ज में भिन्न-भिन्न रचनाओं के भावों को एक स्थान पर भिन्न रूप में ग्रहण किया जाता है-वे सदृश होने के कारण एक से लगते हैं-इस प्रकार कई रचनाओं के भावों को एक रचना में ग्रहण करना
रूप विशिष्ट समानता दोनों में है। उनका सामान्य रूप अर्थ को उसी रूप में ग्रहण करने तथा अन्य रूप में
ग्रहण करने की दृष्टि से भिन्न है।
नटनेपथ्य एवं समक्रम :
आलेख्यप्रख्य के नटनेपथ्य एवं समक्रम भेद में भी परस्पर किञ्चित् समानता है। किसी रचना में वर्णित एक ही अर्थ को उक्तिवश अन्यथा कर देना आलेख्यप्रख्य का नटनेपथ्य नामक भेद है। आलेख्यप्रख्य अर्थहरण का ही समान अर्थ का सङ्क्रमण रूप समक्रम भेद भी कुछ ऐसा ही है। नटनेपथ्य में एक ही अर्थ कुछ दूसरी उक्ति से सम्बन्धित होकर दूसरा हो जाता है और समक्रम में समान अर्थ का दूसरे स्थान पर सङ्क्रमण होता है। विशेषोक्ति एवं सत्कार :
आलेख्यप्रख्य का सामान्य अर्थ का विशेष रूप से वर्णन रूप विशेषोक्ति तथा परपुरप्रवेशसदृश का सामान्य अर्थ का विशेष रूप में उत्कर्ष करते हुए दूसरे प्रकार से वर्णन रूप सत्कार नामक भेद पर्याप्त सदृश से हैं। विशेषोक्ति में सामान्य अर्थ का ही कुछ अतिरिक्त विशेषता का आधान करते हुए वर्णन किया जाता है तथा सत्कार में सामान्य अर्थ को ही अधिक उत्कृष्ट करने की दृष्टि से उसका किञ्चित् विशेष रूप से वर्णन किया जाता है। सामान्य अर्थ का ही दूसरी रचना में वर्णन रूप समानता दोनों में है
उभयवाक्यार्थोपादानं सम्पुटः
काव्यमीमांसा - (द्वादश अध्याय) बहूनामर्थानामेकत्रोपसंहारो माणिक्यपुञ्जः
काव्यमीमांसा - (त्रयोदश अध्याय) 2 'तदेववस्तूक्तिवशादन्यथा क्रियत इति नटनेपथ्यम्'। सदृशसञ्चारणं समक्रमः काव्यमीमांसा - (त्रयोदश अध्याय) 3 मामान्यनिबन्धे विशेषाभिधानं विशेषोक्तिः। तस्यैव वस्तुन उत्कर्षेणान्यथाकरण सत्कार:
काव्यमीमांसा - (त्रयोदश अध्याय)