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वर्णन प्रकार की भिन्नता से यह भेद उच्चकोटि के कवियों द्वारा भी ग्रहण किया जाता है। अतः सभी कवियों के लिए स्वीकार्य है।
कवि के लिए अर्थहरण के 32 उपायों को उनकी उपादेयता, अनुपादेयता सहित जानना आवश्यक हो जाता है। किन्तु यह आवश्यकता प्रारम्भिक अभ्यासी, काव्यशिक्षा के इच्छुक कवि के लिए ही अधिक है।
अर्थहरण के विभिन्न अवान्तर भेदों का परस्पर तुलनीय स्वरूप :
आचार्य राजशेखर द्वारा किए गए अर्थहरण के 32 अवान्तर भेदों में से अनेक अर्थभेद अपने स्वरूप की दृष्टि से परस्पर समान से हैं । अर्थहरण के चार प्रमुख भेद हैं-उन चारों की अपनी-अपनी सामान्य विशेषता उनके अपने-अपने अवान्तर भेदों में अवश्य है, फिर भी अनेक अवान्तर भेदो के अपने विशेष रूप अनेक अन्य अवान्तर भेदों के विशेष रूप से समानता रखते हैं।
विभिन्न अवान्तर भेद अपने विशिष्ट रूप में भले ही अन्य विशिष्ट भेदों से समानता रखते हों किन्तु इनका सामान्य रूप भिन्न अवश्य है। प्रत्येक अर्थहरण भेद का सामान्य वैशिष्ट्य उसके अवान्तर भेदों में अवश्य रहता है। अतः अवान्तर भेदों के परस्पर समान विशिष्ट स्वरूप के आधार पर उनकी तुलना तो की जा सकती है किन्तु अपने-अपने सामान्य स्वरूप की भिन्नता के कारण उन्हें एक ही नहीं कहा जा सकता। अर्थहरण का विशिष्ट अवान्तर भेदों के रूप में विभाजन आचार्य राजशेखर की मौलिक उद्भावना है - और उसका अपना विशिष्ट महत्व है। उनकी आलोचना केवल उनकी तुलना करने के रूप में की जा सकती है। उनकी वास्तविक विभिन्नता के कारण उन्हें एक कहना तो नहीं, किन्तु कुछ अंशों में समान कहना सम्भव है।
व्यस्तक एवं व्युत्क्रम :
प्रतिबिम्ब कल्प अर्थहरण का व्यस्तक भेद तथा आलेख्यप्रख्य का व्युत्क्रम भेद परस्पर समान से हैं। 1 व्यस्तक में किसी रचना में वर्णित पूर्व अर्थ को पर कर देते हैं और पर अर्थ को पूर्व, अर्थात् एक
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म एवार्थः पौर्वापर्यविपर्यासाद् व्यस्तकः ' 'क्रमेणाभिहितस्यार्थस्य विपरीताभिधानं व्युत्क्रमः '
काव्यमीमांसा ( द्वादश अध्याय)
काव्यमीमांसा (त्रयोदश अध्याय)