SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [223] कहा जाए यही अधिक उचित है क्योंकि इसमें पूर्वरचना के अर्थों का नहीं, केवल भावों का हरण किया जाता है। परपुरप्रवेशसदृश : निहृतयोनि अर्थ का द्वितीय भेद-जहाँ मूल में एकता हो किन्तु रचना में सर्वथा भेद हो परपुरप्रवेशसदृश कहलाता है।। रचना में भेद का तात्पर्य यहाँ वाक्य विन्यास से नहीं है-किन्तु भिन्न प्रकार के वर्णन से है। इस प्रकार जहाँ एक ही मूल वस्तु का भिन्न प्रकार से वर्णन किया जाए वह परपुरप्रवेशसदृश अर्थहरण है-जैसे दोनों रचनाओं में वर्षाकालीन कदम्ब पुष्पों का वर्णन हो किन्तु भिन्न प्रकार से, भिन्न दृष्टि से। मूल वर्णनीय वस्तु वही होने पर भी उसका भिन्न प्रकार से वर्णित होना इस प्रकार के अर्थहरण को ग्राह्य बना देता है। यहाँ केवल मूल अर्थ ही समान होता है, सम्पूर्ण अर्थ नहीं। एक मूल वस्तु लेकर उसका भिन्न रूप में वर्णन उच्च कोटि के कवि भी करते हैं। इस प्रकार के अर्थहरण के भी आठ भेद हैं-हुडयुद्ध, प्रतिकञ्चक, वस्तुसञ्चार, धातुवाद, सत्कार, जीवञ्जीवक, भावमुद्रा, तद्विरोधी। हुडयुद्ध : किसी प्राचीन कवि द्वारा वर्णित अर्थ को किसी युक्ति से परिवर्तित कर देना हुडयुद्ध नामक भेद है। प्रतिकञ्चुक : किसी कवि की रचना में जो वस्तु एक प्रकार से वर्णित हो उसका अन्य प्रकार से वर्णन करना प्रतिमञ्चुक कहलाता है। 1 मूलैक्यं यत्र भवेत्परिकरबन्धस्तु दूरतोऽनेकः तत्परपुरप्रवेशप्रतिमं काव्यं सुकविभाव्यम् काव्यमीमांसा - (द्वादश अध्याय) 2 उपनिबद्धस्य वस्तुनी युक्तिमती परिवृत्तिहुंडयुद्धम्। काव्यमीमांसा (त्रयोदश याग) 3 'प्रकारान्तरेण विसदृशं यद्वस्तु तस्य निबन्धः प्रतिकञ्चुकम्' काव्यमीमांसा - (त्रयोदश अध्याय)
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy