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________________ [220] प्रत्यापत्ति : विकृत अर्थ को उसके प्रकृत रूप में पहुँचा देना अर्थात् एक ही वस्तु जो पूर्व रचना में विकार के साथ (अपने विकृत रूप में) वर्णित हो उसका उसके स्वाभाविक रूप में वर्णन करना प्रत्यापत्ति कहलाता है । 1 इन सभी भेदों का वैशिष्ट्य है पूर्व अर्थ का किञ्चित् संस्कार सहित ग्रहण । कभी-कभी काव्य में ऐसे अर्थ भी निबद्ध किए जाते हैं जिनके विषय में यह ज्ञात नहीं होता कि उनका उद्भावक कवि कौन है - कोई पूर्व कवि अथवा काव्य निर्माता कवि स्वयम् । इस प्रकार का अर्थ निह्नुतयोनि अर्थ कहलाता हैं। इसके दो भेद हैं तुल्यदेहितुल्य तथा परपुरप्रवेशसदृश । तुल्यदेहितुल्य में अर्थ किसी पूर्व अर्थ से मिलता जुलता तो होता है किन्तु उससे पूर्णत: भिन्न भी, वही नहीं । परपुरप्रवेशसदृश में केवल मूल वस्तु ही किसी पूर्व अर्थ की वस्तु के समान होती है किन्तु उसका वर्णन बिल्कुल भिन्न होता है। इन दोनों भेदों के इस प्रकार के स्वरूप के कारण इनके विषय में यह निश्चय नहीं हो पाता कि यह हरण किए गए अर्थ हैं अथवा स्वयम् उद्भावित अर्थ । इन अर्थों को हरण रूप में भी स्वीकार किया जा सकता है और कवि की अपनी उद्भावना रूप में भी। अपनी इस दोरङ्गी स्थिति के कारण यदि यह हरण हों तो भी उत्कृष्ट कवियों के लिए भी ग्राह्य हैं। तुल्यदेहितुल्य : तुल्यदेहितुल्य भेद की यह विशेषता है कि अर्थ में वस्तुतः पूर्व अर्थ से भिन्नता होने पर भी अत्यन्त सादृश्य उसे पूर्व अर्थ से अभिन्न ही प्रतीत कराता है । 2 तुल्यदेहितुल्य का अर्थ है किसी शरीर के समान ही शरीर वाला, किन्तु वही नहीं, कोई अन्य । प्रतिबिम्बकल्प में उसी शरीर का दूसरा अर्थ प्रतिबिम्ब मात्र था, किन्तु तुल्यदेहितुल्य में दो भिन्न-भिन्न किन्तु सदृश से दिखने वाले शरीरों के समान 1 विकृतेः प्रकृतिप्रापणं प्रत्यापत्तिः 2. विषयस्य यत्र भेदेऽप्यभेदबुद्धिर्नितान्तसादृश्यात् तत्तुल्यदेहितुल्यं काव्यं बध्नन्ति सुधियोऽपि । काव्यमीमांसा (त्रयोदश अध्याय) - काव्यमीमांसा (द्वादश अध्याय)
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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