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________________ [207] स्पष्ट होता है तथा दूसरे कवियों की रचनाओं की छाया पर काव्य करने वाले कवि के प्रकार के विषय में भी उन्होंने स्पष्टीकरण किया है। अत: पूर्वकवियों की छाया पर काव्यरचना को वे स्वीकार तो करते हैं, फिर चाहे उनकी स्वीकृति केवल अभ्यासी कवि के लिए ही क्यों न हो, किन्तु दूसरों के प्रबन्धानुशीलन का एकमात्र यही उद्देश्य नहीं है। परप्रबन्धानुशीलन की आवश्यकता कवियों को व्युत्पन्न होने के लिए होती है-काव्यनिर्माण सम्बन्धी व्युत्पत्ति की प्राप्ति के लिए कवि को दूसरों के प्रबन्धानुशीलन की भी उतनी ही आवश्यकता होती है जितनी शास्त्रों आदि के अध्ययन की। परप्रबन्धानुशीलन को भामह और वामन भी काव्यनिर्माण के लिए आवश्यक मानते हैं । काव्य क्रिया के लिए दूसरों के निबन्धों का अवलोकन भामह की दृष्टि में आवश्यक है । वामन के मत में भी अन्यों के काव्य का परिचय प्राप्त करने वाला 'लक्ष्यज्ञत्व' काव्य के अङ्ग रूप प्रकीर्ण का एक अङ्ग है। इससे काव्यरचना की व्युत्पत्ति प्राप्त होती है-किस प्रकार किस ढंग से काव्यरचना की जाए यह स्पष्ट होता है । काव्यप्रयोगों को देखकर कवि की अपनी प्रतिभा का विकास होता है तथा काव्यपरम्पराओं आदि का भी ज्ञान होता है, किन्तु दूसरों के प्रबन्धों का अनुशीलन केवल अर्थ-ग्रहण के लिए ही नहीं है। यदि दूसरों के प्रबन्धानुशीलन का केवल यही उद्देश्य हो तो काव्यनिर्माण एक रूढ़ि रह जाएगा, मौलिक विषय नहीं। काव्यशिक्षाविषयक ग्रन्थ के रचयिता परवर्ती आचार्य श्री विनयचन्द्र अनेक ग्रन्थों में दर्शित क्रिया को देखकर काव्य रचना करना मेधावी कवि का कार्य बतलाते हैं। उनके अनुसार भी काव्यरचना सम्बन्धी व्युत्पत्ति ही दूसरों के काव्यग्रन्थों के अनुशीलन का उद्देश्य है। उनमें से अर्थहरण करना नहीं। वे काव्य की विशेषता उसका नवनवभणितिश्रव्य होना बतलाते हैं। नवनवभणितिश्रव्य का तात्पर्य है नवीन अर्थों तथा उक्तियों से काव्य का मनोहारी होना 3 1 'यः प्रवृत्तवचनः पौरस्त्यानामन्यतमच्छायामभ्यस्यति स सेविता' काव्यमीमांसा - (पञ्चम अध्याय) 2 शब्दाभिधेये विज्ञाय कृत्वा तद्विदुपासनम् क्लिोक्यान्यनिबन्धांश्च कार्य: काव्यक्रियादरः। 101 प्रथम परिच्छेद काव्यालङ्कार - (भामह) 'तत्र अन्येषां काव्येषु परिचयो लक्ष्यज्ञत्वम्। ततो हि काव्यबन्धस्य व्युत्पत्तिर्भवति। 113 1121 काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति - (वामन) 3. इत्थं काव्यक्रियां ज्ञात्वा नानाग्रन्थेषु दर्शिताम् काव्यं कुर्वीत मेधावी विनयस्तस्य कार्मणम्। नवनवभणितिश्रव्यं काव्यम् द्वितीय-क्रियानिर्णयपरिच्छेद (काव्यशिक्षा -विनय चन्द्र)
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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