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हैं, वे केवल ध्वनि के स्पर्श से तथा देश, काल, अवस्था स्वरूप आदि के भेद से ही भिन्न तथा नवीन हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में कवि जो भी अर्थ वर्णन के लिए ग्रहण करेगा वह सभी अर्थों के पूर्ववर्णित होने के कारण किसी न किसी के सदृश अवश्य होगा। एक कवि के भाव से अपने भाव के सादृश्य के त्याग के लिए उसके प्रबन्धों का अनुशीलन किया जाएगा तो किसी न किसी दूसरे कवि के भाव से वह भाव अवश्य मिलते होंगे क्योंकि सभी भाव और अर्थ पहले वर्णित हो चुके हैं-ऐसी स्थिति में सादृश्य का त्याग करना संभव नहीं होगा? फिर परप्रबन्धानुशीलन का यह उद्देश्य कैसा? कवि अपने भाव को केवल किसी कवि के पर्ववर्णित भाव से नवीन रूप में प्रस्तुत कर सकता है। सभी भावों का पूर्ववर्णित होना यह भी सिद्ध करता है कि केवल सदृश अर्थों का नवीन रूप में प्रस्तुतीकरण संभव है, अर्थों का सादृश्य त्याग नहीं, और यदि अर्थसदृशता अवश्यम्भावी है तो उसके त्याग के लिए दूसरों के प्रबन्धों का अनुशीलन क्यों किया जाएगा?
आचार्य राजशेखर केवल अर्थसादृश्य के त्याग के लिए ही दूसरों के प्रबन्धों के अनुशीलन को आवश्यक नहीं मानते, क्योंकि उनका विचार है कि कवि के सरस्वती के अधिष्ठान स्वरूप मानस में स्वयं ही अर्थों का प्रतिभास होता है और पूर्ववर्णित तथा नवीन अर्थों का विभाग उनकी दिव्य दृष्टि स्वयं कर लेती है। दूसरों के द्वारा वर्णित अर्थ की ओर उनकी दृष्टि नहीं जाती, बल्कि वे केवल नवीन तथा अस्पृष्ट अर्थों की ओर ही आकृष्ट होकर उनका वर्णन करते हैं। दूसरों की अर्थ छाया पर काव्यरचना के राजशेखर विरोधी नहीं हैं, क्योंकि दूसरों के प्रबन्धों का अनुशीलन करके उनकी छाया पर स्वयं किञ्चित् संस्कार सहित काव्यरचना में प्रेरित होने की शिक्षा उन्होंने अभ्यासी कवियों को दी है तथा अर्थहरण के
औचित्य को भी स्वीकार किया है। उनका यह भी कहना है कि कवि और व्यापारी कहीं न कहीं चोरी
अवश्य करते हैं। दूसरों के अर्थ कवियों ने ग्रहण किए हैं यह उनके द्वारा दिए गए उदाहरणों से भी
1 'महात्मनां हि संवादिन्यो बुद्धय एकमेवार्थमुपस्थापयन्ति, तत्परित्यागाय तानाद्रियेत' इति च केचित् । 'न' इति यायावरीयः। सारस्वतं चक्षुरवाङ्मनसगोचरेण प्रणिधानेन दृष्टमदृष्टं चार्थजातं स्वयं विभजति।
काव्यमीमांसा - (एकादश अध्याय) 2 'नास्त्यचौर: कविजनो नास्त्यचौरो वणिग्जनः स नन्दति बिना वाच्यं यो जानाति निगृहितम्॥'
काव्यमीमांसा - (एकादश अध्याय)