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कविसमय अथवा कविप्रसिद्धि का केवल कवियों के जगत् से ही सम्बन्ध है, लोक से नहीं। मम्मट का 'प्रसिद्धिविरूद्धता' दोष शब्द तथा अर्थ दोनों से सम्बद्ध है1-इस आधार पर प्रसिद्धि के विरुद्ध शब्द तथा अर्थनिबन्धन को दोष मानकर कविसमय को शब्द से भी सम्बद्ध मानना सम्भव नहीं है क्योंकि प्रसिद्धि विरुद्धता दोष केवल कविप्रसिद्धि से सम्बद्ध नहीं है, लोक प्रसिद्धि से भी उसका सम्बन्ध है।
राजशेखर से पूर्व आचार्य वामन ने पद, पाद आदि के विधिपूर्वक निबन्धन से सम्बद्ध तथा
व्याकरण से सम्बद्ध नियमों का उल्लेख किया है तथा इस विषय को काव्य समय नाम दिया है।
राजशेखर के परवर्ती आचार्य केशवमिश्र ने भी कविसमय के अन्तर्गत आर्थी परम्पराओं के साथ
ही इस प्रकार के नियमों का भी उल्लेख किया है। किन्तु कविशिक्षा से सम्बद्ध 'कविसमय' शब्द
1. प्रसिद्धिविरुद्धता दोष :-कवियों के यहाँ कुछ विशेष शब्दों और अर्थों का विशेष रूप में वर्णन करने का नियम
या परम्परा चली आ रही है। उसको 'कविसमय' या कविप्रसिद्धि' कहा जाता है। इस कविसमय या कविप्रसिद्धि का उल्लंघन होने पर 'प्रसिद्धिविरुद्धता' दोष होता है। मञ्जीरादिषु रणितप्रायं पक्षिषु च कूजितप्रभृति स्तनितमणितादि सुरते मेघादिषु गर्जितप्रमुखम् ।। इति शब्ददोष :-प्रसिद्धमतिक्रान्तम् यथा महाप्रलयमारुतक्षुभितपुष्करावर्तकः प्रचण्डघनगर्जितप्रतिरुतानुकारी मुहुः । रवः श्रवणभैरवः स्थगितरोदसीकन्दरः कुतोऽद्य समरोदधेरयमभूतपूर्वः पुरः।। अत्र रवो मण्डूकादिषु प्रसिद्धो न तुक्तविशेषे सिंहनादे। अर्थदोष :-इदं ते केनोक्तं-----------------इदं तद् दुःसाध्याक्रमणपरमास्त्रं स्मृतिभुवा तव प्रीत्या चक्रं करकमलमूले विनिहितम् ।। अत्र कामस्य चक्रं लोकेऽप्रसिद्धम्। उपपरिसरं गोदावर्या:---------इह हि विहितो रक्ताशोकः कयापि हताशया चरणनलिनन्यासोदञ्चत्रवाकरकञ्चुकः॥ अत्र पादाघातेनाशोकस्य पुष्पोद्गम: कविषु प्रसिद्धो न पुनरङ्करोद्गमः। सुसितवसनालङ्कारायां कदाचन कौमुदी महसि सुदृशि स्वैरम् यान्त्यां गतोऽस्तमभूद्विधुः। तदनु भवतः कीर्तिः केनाप्यगीयत येन सा प्रियगृहमगान्मुक्ताशका क नामि शुभप्रदः । अत्रामूर्तापि कीर्तिः ज्योत्स्नावत्प्रकाशरूपा कथितेति लोकविरुद्धमपि कविप्रसिद्धर्न दुष्टम्। ख्यातेऽर्थे निर्हेतोरदुष्टता :-चन्द्रं गता पद्मगुणान्न भुङ्क्ते पद्माश्रिताचान्द्रमसीमभिख्याम्। उमामुखं तु प्रतिपद्य लोला द्विसंश्रयां प्रीतिमवाप लक्ष्मीः॥ अत्र रात्रौ पद्मस्य सङ्कोच:, दिवा चन्द्रमसश्च निष्प्रभत्वं लोकप्रसिद्धमिति '
नते' इति हेतुम् नापेक्षते।
(दोषप्रकरण) काव्यप्रकाश ( मम्मट)