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काव्यमीमांसा में वर्णित विभिन्न शिष्यों का कवि स्वरूप :
आचार्य राजशेखर ने 'काव्यमीमांसा' में काव्य तथा काव्याङ्ग विद्याओं के विभिन्न शिष्यों के कविस्वरूप का भिन्न-भिन्न नामकरण किया है।
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सारस्वत कवि: सहज स्वाभाविक प्रतिभा सम्पन्न बुद्धिमान् शिष्य गुरू के अल्प संकेत मात्र से काव्य, काव्याङ्ग विद्याओं में निष्णात होकर काव्यनिर्माण की पूर्ण सामर्थ्य प्राप्त करता है यह कवि किसी भी विषय पर स्वतन्त्र रूप से काव्यरचना करने में पूर्णतः समर्थ होता है ।1 किन्तु सहज प्रतिभा सम्पन्न होने पर भी पूर्ण रचना स्वातन्त्र्य हेतु उसे विभिन्न काव्यसम्बन्धी, लोकसम्बन्धी तथा शास्त्र सम्बन्धी विषयों में व्युत्पन्न होने की आवश्यकता पड़ती है।
आभ्यासिक कविः जन्म के पश्चात् शास्त्रों आदि के अध्ययन रूप संस्कार से प्राप्त आहार्या प्रतिभा से सम्पन्न आहार्यबुद्धि शिष्य का कविस्वरूप ' आभ्यासिक' नाम से अभिहित है आहार्यबुद्धि शिष्य के अभ्यासी स्वरूप के कारण ही उसका कविरूप 'आभ्यासिक' कहलाया क्योंकि उसके जीवन में प्रतिभांत्पत्ति से लेकर कवि बनने तक निरन्तर अभ्यास का ही स्थान है। निरन्तर गुरू के पथप्रदर्शन में काव्यरचना का अभ्यास ही उसे कवि बना पाता है। अभ्यास द्वारा जितनी काव्यक्षमता प्राप्त हो, उसी के अनुरूप उसका काव्यनिर्माण श्रेयस्कर है। अतः अभ्यास द्वारा प्राप्त अपनी सामर्थ्यसीमा को दृष्टि में रखते हुए वह सीमित रूप में सीमित विषयों पर ही काव्यरचना कर सकता है।
औपदेशिक कवि: तृतीय प्रकार के दुर्बुद्धि शिष्य का कवि रूप मन्त्रादि के अनुष्ठान एवं उपदेश आदि के कारण सरस्वती की कृपा से कवित्व प्राप्ति के कारण 'औपदेशिक' कहलाया 3 वह स्वतन्त्र रूप से अथवा सीमित रूप से काव्यरचना नहीं कर सकता - किन्तु जिस विषय पर काव्यरचना की उसे देवी प्रेरणा मिले उसके लिए उसी विषय पर काव्यरचना करना सम्भव है। देवी प्रेरणा के अभाव में वह किसी भी विषय पर काव्यरचना करने में असमर्थ है। 1
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(काव्यमीमांसा चतुर्थ अध्याय)
जन्मान्तरसंस्कारप्रवृत्तसरस्वतीको बुद्धिमान्सारस्वतः सारस्वतः स्वतन्त्रः स्याद्
इह जन्माभ्यासोद्भासितभारतीक आहार्यबुद्धिराभ्यासिकः । ...... भवेदाभ्यासिको मितः ।
(काव्यमीमांसा चतुर्थ अध्याय)
3 उपदेशितदर्शितवाग्विभवो दुर्बुद्धिरौपदेशिकः । औपदेशिककविस्त्वत्र वल्गु फल्गु च जल्पति ।
(काव्यमीमांसा चतुर्थ अध्याय)