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________________ [98] कविराजत्व :- आचार्य श्यामदेव दुर्बुद्धि की अपेक्षा आभ्यासिक को तथा आभ्यासिक की अपेक्षा बुद्धिमान् को श्रेष्ठ मानते हैं किन्तु आचार्य राजशेखर के अनुसार श्रेष्ठकवित्व की कसौटी है उत्कर्ष ।। जिस कवि में जितना अधिक उत्कर्ष हो वह उतना ही श्रेष्ठ है। श्रेष्ठकवित्व (आचार्य राजशेखर के शब्दों में कविराजत्व) उसी को प्राप्त होता है- जिसमें सारस्वत कवि का वैशिष्ट्य सहज प्रतिभा सम्पन्न बुद्धिमता, आभ्यासिक कवि का वैशिष्टय काव्य तथा काव्याङ्ग विद्याओं में निरन्तर अभ्यास से प्राप्त क्षमता तथा औपदेशिक कवि का वैशिष्ट्य मन्त्रानुष्ठान एवं दैवी कृपा से प्राप्त कवित्व क्षमता सभी गुण समान रूप से विद्यमान् हों। किन्तु इन तीनों गुणों का एकत्र होना सामान्यत: कठिन होने के कारण कवियों का कविराज की श्रेणी तक पहुँचना भी कठिन ही है। सारस्वत कवि आभ्यासिक कवि के निरन्तर अभ्यास से प्राप्त कवित्व क्षमता रूप वैशिष्टय को ग्रहण कर सकता है परन्तु मन्त्रानुष्ठान से दैवी कृपा की प्राप्ति तो किसी विरल को ही होती है और बुद्धिमान् को इसकी प्राप्ति हो ही जाना अनिवार्य नहीं है। आभ्यासिक कवि सारस्वत कवि के वैशिष्ट्य सहज प्रतिभा सम्पन्नता को प्राप्त नहीं कर सकता तथा मन्त्रानुष्ठान से प्राप्त दैवीकृपा उसके लिए भी सहज सुलभ नहीं है। इसी प्रकार दैवी प्रेरणा प्राप्त औपदेशिक कवि में सहज स्वाभाविक बुद्धिमता तथा अभ्यास से प्राप्त क्षमता दोनों का प्राप्त होना कठिन है। अतः कविश्रेष्ठता की कसौटी कविराजत्व प्रायः दुर्लभ है परन्तु जिसे सौभाग्य से तीनों प्रकार की क्षमताएं प्राप्त हों वह कविश्रेष्ठ है, जिसकी आचार्य राजशेखर के अनुसार कविराज संज्ञा है। शिष्य का कवि बनने तक का विकासक्रम :- कवि की अवस्थाएँ :- आचार्य राजशेखर ने कवि की दस अवस्थाओं का विवेचन किया है। इन अवस्थाओं को शिष्य से कवि बनने तक के विकासक्रम के अन्तर्गत विभिन्न स्थितियों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। प्रथम सात अवस्थाएँ बुद्धिमान् तथा आहार्यबुद्धि से तथा तीन औपदेशिक कवि से सम्बद्ध मानी गयी है। यह अवस्थाएँ कवि के गुरूकुल में प्रवेश करने, काव्यरचना का अभ्यास करने तथा क्रमश: पूर्ण कवि बन जाने से सम्बद्ध हैं। प्रथम सात अवस्थाओं में से प्रारम्भिक पाँच अवस्थाएँ शिष्य की हैं तथा अन्तिम दो कवि की। 1. 'उत्कर्ष: श्रेयान्' इति यायावरीयः। स चानेकगुणसन्निपाते भवति। (काव्यमीमांसा-चतुर्थ अध्याय) 2 बुद्धिमत्त्वं च काव्याङ्गविद्यास्वभ्यासकर्म च। कवेश्चोपनिषच्छक्तिस्त्रयमेकत्र दुर्लभम्॥ काव्यकाव्यानविद्यासु कृताभ्यासस्य धीमतः। मन्त्रानुष्ठाननिष्ठस्य नेदिष्ठा कविराजता ।। (काव्यमीमांसा-चतुर्थ अध्याय)
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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