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इस प्रकार बुद्धिमान् तथा आहार्यबुद्धि दोनों प्रकार के शिष्यों को काव्यसम्बन्धी विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करके कवि बनने के लिए गुरू के सामीप्य की तथा काव्य निर्माण के अभ्यास की आवश्यकता पड़ती है। किन्तु जहाँ सहजा प्रतिभा के कारण बुद्धिमान् शिष्य को सुकवि बनने के लिए गुरु के सकृत् सङ्केत तथा अल्प अभ्यास की आवश्यकता होती है वहाँ आहार्य बुद्धि शिष्य की आहार्या प्रतिभा उसे गुरू के निरन्तर सामीप्य, निरन्तर पथप्रदर्शन तथा गुरु के समीप ही निरन्तर काव्यनिर्माण के अभ्यास के पश्चात् कवि बना सकने में समर्थ होती है। दोनों शिष्यों की प्रतिभा भिन्नता ही इस भेद का कारण है।
दुर्बुद्धि :- बुद्धिमान् तथा आहार्यबुद्धि के अतिरिक्त कुछ शिष्य पूर्णतः मूढ़ होते हैं जिन्हें आचार्य राजशेखर दुर्बुद्धि कहते हैं- । इस प्रकार के शिष्य में न तो सहजा प्रतिभा होती है और न ही वह शास्त्रों के अभ्यास से आहार्या प्रतिभा की प्राप्ति में समर्थ होता है। पूर्वजन्म के संस्कार से प्राप्त सहजा प्रतिभा तथा ऐहिक संस्कारों से स्वप्रयत्न द्वारा प्राप्त आहार्या प्रतिभा दोनों ही के अभाव में गुरू द्वारा दी गई काव्यनिर्माण सम्बन्धी शिक्षाएँ भी उसके लिए व्यर्थ होती हैं- इस कारण उसका कवि बन सकना प्रायः असम्भव सा ही है। उसका कवित्व केवल एक ही स्थिति में सम्भव है-जब मन्त्रों के अनुष्ठान से दैवी शक्ति द्वारा कवित्वक्षमता रूप प्रतिभा प्राप्त हो जाए?
प्रतिभा की स्थिति होने पर भी प्रौढ एवं श्रेष्ठ काव्य की रचना हेतु विभिन्न शिक्षाओं एवं
क्रमिक अभ्यास की भी अनिवार्यता है। कवि की शिष्यावस्था से पूर्ण कवि बनने तक के विकासक्रम
अहरहः सुगुरूपासना तयोः प्रकृष्टो गुणः । सा हि बुद्धिविकाशकामधेनुः। तदाहु: "प्रथयति पुरः प्रज्ञाज्योतिर्यथार्थ परिग्रहे तदनु जनयत्युहापोह क्रियाविशदं मनः। अभिनिविशते तस्मात्तत्वं तदेकमुखोदयम् । सह परिचयो विद्यावृद्धैः क्रमादमृतायते॥' तत्र बुद्धिमतः प्रतिपत्तिः। स खलु सकृदभिधानप्रतिपन्नार्थः कविमार्ग मृगयितुं गुरूकुलमुपासीत। आहार्यबुद्धस्तु द्वयमप्रतिपत्तिः सन्देहश्च । स खल्वप्रतिपन्नमर्थम् प्रतिपत्तुं सन्देहं च निराकर्तुमाचार्यानुपतिष्ठेत।
(काव्यमीमांसा - चतुर्थ अध्याय) 2 दर्वद्धस्तु सर्वत्र मतिविपर्यास एव। स हि नीलीमेचकितसिचयकल्पोऽनाधेयगुणान्तरत्वात्तं यदि सारस्वतोऽनुभाव: प्रसादयति
(काव्यमीमांसा-चतुर्थ अध्याय)