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को तथा इस विकासक्रम के मध्य शिक्षा एवं अभ्यास के महत्व को अधिकतर आधायों ने इसी कारण
स्वीकार किया है।
भरतमुनि के 'नाट्यशास्त्र' में शिष्य के निम्न गुण स्वीकार किए गए हैं:उहापोह, स्मृति, मति, मेधा, श्लाघा, राग, संघर्ष और उत्साह। 1
काव्यविद्या के शिष्य में भी इन गुणों का होना निश्चय ही आवश्यक है। इन गुणों में से संघर्ष तथा उत्साह को अभ्यास से ही सम्बद्ध माना जा सकता है।
आचार्य राजशेखर के बहुत पूर्व आचार्य वामन ने दो प्रकार के कविभेदों को स्वीकार किया है 2 शासनीयत्व, अशासनीयत्व के उल्लेख के कारण तथा काव्यविद्या के अधिकारी निरूपण के अन्तर्गत विवेचन के कारण इन कविभेदों को शिष्यभेदों के रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है। अरोचकी तथा सतॄणाभ्यवहारी काव्यविद्या के काव्यनिर्माणेच्छु शिष्य हैं किन्तु अपने विवेक के कारण केवल अरोचकी शिष्यों का ही कवि बनना सम्भव है। सतॄणाभ्यवहारी शिष्यों का अविवेक उन्हें काव्यविद्या का अधिकारी नहीं बनने देता। उनके अविवेचनशील स्वभाव के लिए शिक्षाएँ एवं निर्देश अर्थवत् नहीं होते । कवि के इन्हीं भेदों को आचार्य विनयचन्द्र ने अपने 'काव्यशिक्षा' नामक ग्रन्थ में शिष्य भेदों के रूप में स्वीकार किया है। शिष्यरूप इन कवियों के विवेक का कवित्वबीज प्रतिभा की स्थिति से तथा अविवेक का कवित्वबीज प्रतिभा के अभाव से सम्बन्ध मानकर यह स्वीकार किया जा सकता है कि शिक्षा एवं निर्देश उन्हीं के लिए लाभकारी है जो स्वयं कवित्वप्रतिभा सम्पन्न हों अन्यथा शिक्षाएँ एवं निर्देश प्रतिभा के अभाव में व्यर्थ हैं- प्रायः सभी आचार्यों को यही मान्य भी है क्योंकि सभी ने शिक्षा एवं अभ्यास के महत्व को प्रतिभा का अस्तित्व होने पर ही स्वीकार किया है। केवल
शिष्यस्य गुणाः
उहापोहो मतिश्चैव स्मृतिर्मेधा तथैव च । 36 । मेघास्मृतिर्गुणश्लाघारागः संघर्ष एव च । उत्साहश्च पडेवैतान् शिष्यस्यापि गुणान् विदुः । नाट्यशास्त्र (षडविंशोऽध्यायः) (पेज - 300 )
2 अरोचकिनः सतॄणाभ्यवहारिणश्च कवय: ( 1/2/1 )
ias प्यरोचकिनः केऽपि सतॄणाभ्यवहारिणः, तेषु पूर्वे विवेकित्वादेनामर्हन्ति नापरे। 30 ।
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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति (वामन)
शिक्षा परिच्छेद पृष्ठ 3 (काव्यशिक्षा विनयचन्द्रसूरि )
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