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[कवि जान कृत ॥ अर्धभुजंगी छंद ॥ इतहि चहुवानं, उतहि सुल्लतानं ।
चले नाल बानं, . पर्यो घमसानं ॥३६८।। बहै सांग भारी, गडै तन कटारी, लगै चोट कारी, मरै बहु जुझारी ॥३६६॥ परे राव रानं, पर्यो सुल्लितानं ।
जित्यौ फतिहखान, भयो जस जहानं ।।४००।। ॥दोहा॥ दुहूं वोर सूरा कटे, बहुत परयो घमसांन ।
बादै हन्यौ हिसामदी, जैत भई दीवांन ॥४०१॥ काट्यो सीस हिसामदी,पठयो ढिग पतिसाह । हर्षवंत छत्रपति भयो, देख्यौ नीकै चाहि ॥४०२॥ । फतिह करयो रिनथंभ तन, पैठौ गढ़मै जाइ । पातसाह बहलोलने, पाछे देख्यौ आइ ॥४०३॥ गढ़ लै दिल्लीकौं चल्यो, लोदी साह पठान । फतिहखानु चहुवानकौ, दीनौ मनसब मान ॥४०४ जैत पत्र लै फतिहखां, आयौ अपने देस । थर हर कंपै भौमिया, जबते कर्यो प्रवेस ॥४०५।। नारनोलते अखनकी, आई यहै पुकार । मेवाती सबही मिले, माड्यौ चाहै रार ॥४०६।। कै तुम . आवहु आपही, के दल देहु पठाइ । भय्यनको यहु काम है, संकट होंहि सहाइ ।।४०७॥ नारनोलको फतिहखां, दलबल दये पठाइ । अंखिन खिल्यो अति देखक, फुल्यो अंग न माइ ॥४०८।। मेवाती उतते चले, लागे ढोसी आइ । इतते चढ़ि इखतारखा, सनमुख लीने आइ ॥४०६।। मार परी दहुं वोरते, जूझि गये जूझार । मेवाती दल निवल है, हारि चले तजि रार ॥४१०॥