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[ कवि जान कृत जौलौं जीयो जगतमैं, बध्यो नहीं पतिसाहि। वहै करयो इखतारखां, जोई जियकी चाहि ॥३२४॥ जित गिरवर तितही करी, अखन कोटकी मांड । रहत भोमिया निकट जे, सबे देत ते डांड ॥३२॥ प्रांबरे बीतें बरष, देत दुवादस लाख । आठ अमरसरके भरत, कबितु देतु हैं साख ॥३२६।। है चौथो सुत कुतुबखां, बस्यो बारुवै जाइ। कोऊ बरनां कर सकै, परे भोमिया पाइ ॥३२७।। बस्यो बगरमैं मौनखां, गयो नगरसौ होइ । आस पासके सब नये, बलु कर सके न कोइ ॥३२८।। मौनां क्यामलखांन सुत, कूरमरिप चहुवांन । जाकै दलकी दहलते, कूतल पर्यो भगांन ॥३२६।। ताजखानु सबमैं तिलक, दूजो महमदखांन । दोउ अति नीके भये, सूरबीर चहुवांन ॥३३०॥ ताजखाँन महमदखा, दोउ रहे हिसार । ठौर पिता राखी भलै, हौ दहुवनमैं प्यार ।।३३१॥ दिल्लीपतिसौ ना मिलैं, रिस राखै सिरमौर । ताक्यो खां पेरोजखां, तबहि गये नागौर ॥३३२॥ नागोरीखां उठि मिल्यो, बहुतै प्रादुर दीन । हो ना बदौ दिलेसकै, भये येकतै तीन ॥३३३॥ हांते कबहू होत नां, रहै रैन दिन संग । रानै ऊपर चढ़नकै, करि है मते उमंग ।।३३४।। दल बल करि खां चढ़ि चल्यो, आगै मोकल रांन । कटकनिके ठटु ठानिक, आयो दे नीसांन ॥३३५।। दल बल जोताई मिले, दह वोरिके आइ । उत मोकल पेरोज इत, जुरे जुद्धके चाइ ॥३३६।। .