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[कवि जान कृत जबहि सुन्यो यो क्यामखां, बहुत पठान रिसाइ । तब मन मांहि बिचारिक, कीनौ यह उपाइ ॥२७३।। हुतौ बिलाइत खिजरखां, लकब वोझरीवाल । तासौं कछु पहिचान ही, यहु टेरयो ततकाल ॥२७४।। यो लिखि पठयो क्यामखां, तूं उठि बैगौ आव । मैं तोको दीनी दिली, जो लेबैको चाव ॥२७५।। खिजरखानुं पाती पढ़त, सिर ऊपर धरि लीन । उतते दल करि चढ़ि चल्यो, गहर कछु नां कीन ॥२७६।। लिख पठयों यों खिजरखां, खां जू गहर निवार । चढ़ि आवौ ज्यों मिलि चलें, दिली लैंनके प्यार ॥२७७॥ पाती बाचत क्यामखां, चढ्यो बजे नीसांन । खिजरखांन सेती मिले, आनंदनि मुलतांन ॥२७८।। खिजरखान पाइन पर्यो, अंक भर्यो चहुवांन । यहै कह्यो तब कौन दे, तुम बिन दिल्ली आन ॥२७९।। क्यामखानु असे कह्यो, दिली दई करतार । हो तेरौ संगी भयो, तू अब गहर निवार ॥२८०॥ तबही चढ़े मुलतान ते, मतौ कर्यो मन मांहि । राठोरनिको साधिकै, तब दिल्लीपर जाहिं ।।२८१॥ सबही मेवासै मलत, आइ लगे नागौर । तामै चौंडा बसत हौ, राइनकौं सिरमोर ॥२८२॥ आइ दबायो कोटमै, असी कीनी दौरि । चौंडा चढ़ि नाहिन सक्यो, मूवी निकसिकै पौरि ॥२८३।। चौडा लीनो मारिक, भाज चल्यो सब संग । वहुत खदेरे ना लरे, सके कटाइ न अंग ॥२८४॥ कमधज कर बरछी लये, भज्जै इहं उनिहारं। सांग सिंगसे देखिये, मनहुं चले म्रिग डार ॥२८५।।