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[ कवि जांन कृत
दिली दई जिन खिदरखां, तिन मो दयो हिसार। सौ कौन जु लइ सकै, जो दीनी करतार ॥ २५० ॥ जो चढ़ि आवै खिदरखां, तौ ना तजौं हिसार । जौ हिसार अव छाँड हौं, हांसी हुवै सैसार ॥२५१॥ कुतब हमारी मदत है निहच जियमें जान । जो अपनी चाहे भलो, जिन श्रावहि अगवान ॥ २५२ ॥ रोस भयो चिठी पढ़त, दयो तबही नीसांन । महा प्रबल दल साजकै, चढ़ि जु चल्यो अगवांन ॥ २५३ ॥ सुनत बात यहु क्यामखाँ, करयो लरनको साज । जुझ बिना सूझत नहीं, जिहं भाजनकी लाज ।। २५४ ॥ आवत आवत मोजदी, नेरेँ उतरचौ आइ । चिठी लिखकै बहुरि इक, मानस काहे लरिकै सुलताननिकै कटकसौं, भाजत कैसी मेरे कटक अनंत है, मारि डारिहौं याते फिरिफिरि कहतु हौं, दया आइ है क्यामखानु तब यों लिख्यो, सुनि अगवान गिवार । तेरी डिठि है कटकपर, मेरि डिठि करतार ॥ २५८ ॥ चिता नैकु न कीजिये, जो रिप होंहि अनेक | मारन ज्यावंनहार है, सुतौ जांन कहि ढीठ बसीठन फेर तू, अबहि मिलावहु डीठ | ह्वै है जाके ईठ बिधु, ताकी रहै पटीठ ॥ २६० ॥ मोजदीन उतते चढ्यो, इतते काइमखांन । चाहुवांन अगवान मिलि, भलौ कर्णौ घमसान || २६१॥ जैसी सावनकी घटा, मिली सैन द्वै आइ । अंधकार ही ह्वै गयो, धूरि रही जगु छाइ ॥ २६२ ॥
क्यामखाँ, मरिहै वेही काज ।
तोहि ।
।
मोहि ॥ २५७॥
येक ॥ २५६ ॥
दयो पठाइ ।। २५५।।
लाज ॥ २५६ ॥