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क्यामखा रासा]
साहव उत्तिम कीजिये, जो कुलवंतो होइ । चेरैके चाकर भये, सोभ न पावै कोइ ॥१६३।। लै तारी गढ़ कोटकी, उठि आयो परधान । काइमखां दीवानक, प्रागै राखी अांन ।।१६४।। यहै कह्यौ तब सबनि मिलि, सुनि साहिब दीवान । तुम चलि बैठो तखतपर, फेरहु अपनी प्रांन ।।१६।। पातसाह तुम दिल्लीके, हम सब सेवक आहि । गहर छाड़ि बैठहु तखत, जो पतिसाही चाहि ।।१६६।। भये दिलीमै छत्रपति, बड़े तिहारे सात । तुम तिनके पतिसाह हौ, नांहि नई कछु वात ॥१६७।। क्यामखानुं तब युं कह्यो, सुनिहु बात परधान । मोहि न दिल्ली चाहीये, रचनहारकी पान ।।१९८॥ जिन जानउं मो जीउमै, दिल्ली लैनको हेत। द्वै दिनकै सुख कारनै, को संतत दुख लेत ॥१९६।। जो पाछै पतिसाह द्वै, क्रोध धरै मन मांहि । संतत पहले छत्रपति, जीवत छाड़त नांहि ॥२०॥ परधाननि तव यों कह्यौ, सुनि चकवे चहुवांन । जो तुम दिल्ली लेत ना, देह मल्लू खांन ।।२०१।। अनंत भतारहि भख गई, नैकु न आई लाज । येक मरै दूजे धरै, यह दिल्लीको काज ॥२०२।। जात गोत पूछत नहिं, जोई पकरत पांन । ताहीसौं हिलमिलि चलै, पै भखि जाइ निदान ॥२०३।। ये बतियां कहि उठि गये, मल्लू पास परधांन । पकरि बांहि पतिसाहिक, तखत बिठायो अांन ॥२०४।। बात सुनी यहु क्यामखां, तब ही दै नीसांन । अपनै घरको उठि चल्यौ, चक्रवती चहुवांन ।।२०।।