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[ कवि जांन कृत
जबहि भयो बस कालकै, फेरोसाह सुलतान । तब महमद महमूदने, फेरी जगमें श्रान ॥ १८० ॥ इनहू कीनी प्यार बहु, पिता करत ज्यों नित्त । क्यामखांनुं से रख्यौ, जैसे भाई मित्त ॥ १५१ ॥ जब महमद महमूद हू, परे कालके जाल । तव नसीरखां पुत्र उहि, ठौर गही ततकाल ॥ १८२॥ क्यामखांनु चहुवान सों, इनहू कीनौ प्यार । जो कछु किये सु जांन कहि, इनसौं पूछि बिचार || १८३ || रोगी भये निसीरखां, सब फिरि गये सुभाइ । बिन मल्लूखां दूसरी, निकट न कोउ जाइ ॥ १८४॥ मल्लूखां चेरौ हती, पाल्यो फेरौसाहि । बहुरि करचो परधान वहु, सब जगु मांनत ताहि ॥ १८५ ॥ पातसाह जब चलि गये, तबही चली यहु बात । दील्लीकें हित मल्लू नें, मारचौ है करि घात ॥ १८६॥ गोत गैल बुधि होत है, से कुसल कहंत । कुलहीनो मुख लाइये, पूरी पर न अंत ॥ १८७॥ कुलहीनौं सुधरै नही, कीजे पाइक तौ फरजी भये, चलें पाछौ भारी नांहि जिहिं, यों चलिहै पग छोर । जैसे गुडिया पौंछ बिन, उलटि परत सिर जोर ॥ १८६॥
जतन करोर
सीसके जोर ॥१८८॥
कोउ पुत्र न हि । पतिसाहीकी चाहि ॥ १६० ॥
जब मरि गयो नसीरखां, मल्लूखांको तब भई, कामदार सब मल्लूसी, राखत है अति नेहु । कह्यो तखत पर बैठके, तुम पतिसाही लेहु ॥ १११ ॥
क्यामखानुं यहु बात सुनि, सबसी की रिसाइ । पातसाह कैतखत पर चेरौ क्यौ न आइ ॥ १६२ ॥