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क्यामखां रासा]
जौ लौ जीउ जगतमै, हां तो है हो नाहि । जौ तुम जिय ती अंग हूं, तुम घट तौ हौं छांहि ।।६३॥ कै तुम लेहु मिलाइ मुहि, उरत फिरौं तुम मांहि । कै तुमको मानस करौं, वसतर दैहों नांहि ॥१४॥ काहेको बिललातु हौ, मया न आवत मोहि । मन बदलै बसतर लय, सो कैसे द्यों तोहि ।।६।। सोच कर्यो चित अपछरा, बसतर नाहिंन देत । जो लौ हममें देखि कै, येक हि ना चुनि लेत ।।१६।। बसतर नाहिन देत है, कीने जतन अनेक । सब जलमे कोलौ रहै, देही याको येक ॥१७॥ तब हि कह्यौ सुनि राइ जू, बसन हमारे देहु । जासौ उरझे नैनं तुम, येक बीन सो लेहु ॥१८॥ सवमे नान्ही बैंसकी, बीन लइ तब राइ । वनमैं जल प्यासै लह्यौ, फूल्यो अंग न माइ ॥६६॥ बोल बचन कर राइन, वसतर दीने प्रांनि । चारौं आइ घंघपै, वनि बनि वानिक वानि ॥१०॥ येक दई तब राइको, रीति भांति करि व्याह । तवहि संग करि लै चल्यो, पूजी चितकी चाहि ॥१०१।। लही सुहारी फल लहत, कहत जांन परबीन । धावत पार्छ हरनक, हरनंछी विध दीन ॥१०२।। तीन जंने सुत अपछरा, कन्ह, चन्द पुनि इंद । येक येकतें सरस हैं, तीनो भये नरिंद ॥१०३॥ चंदवार चंदे करी, इंद करी इंदोर । कन्हर देव सुजान कहि, रहे पिताकी ठौर ।।१०४|| घंघ रान पुनि अपछरा, आनंद कीये अपार । अंत भये बस कालक, यह रीति संसार ॥१०॥