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[कवि जान कृत ॥ सवैया ॥ करत सनांन, सर रूपकी निधान,
बांम अति अभिरांम, असी उपमां बखांनी है । अंगकी क्रमक दमकनि असी लागति है, असित घटामैं दामनीसी चमकानी है। के तो जैसी भांति तंन क्रांतिकी है सोभा देत, ससि प्रतिबिंब देखियत मधि पानी है। मानहुँ अगिंन झाई, जलमांहि प्रगटाई,
कै तौ बड़वानल सलिल भभकानी है ।।८४॥ ॥दोहा॥ बसतर छाडे पाल सर, न्हावन पैठी बांम।
लीना घंध उचाइकै, पूजे मनसा काम ॥८॥ बसन लेत राजा तक्यौ, परी परी मुरझाइ। सूर छपें ज्यौ नीरमै, कंवल रहै कुमिलाइ ।।६।। द्रिग आंसू उर धकधकी, बकी लगी मुख रांम ।
बसतर बिना न उडि सकै, रही उघारी बाम ॥८७॥ ॥ सवैया ॥ अंबर देहु हमारे, जात उघारी हहा रे !
खरी हम लाज मरै, दुख पावै महा रै । जीभ थकी बकतें,तुमसौ सुनते,चुख कान तिहारे न हारे। आवैसनांनको दीजिये जानन यामै कहौ तुम पुन कहारे।
ठाढ़ी रही जल पोत कीये हम अंबर देहु हमारे हहारे ।।८।। ॥ दोहा॥ तब हि घंघ उनिसौं कह्यौ, सुनि लै सांची बात ।
येक बरौ जौ चहुंनिमै, तो ढापौ तुम गात ॥८६॥ कहै अपछरा राइसौ, भैसी हुई न होइ। हम तुममै कैसे बने, जात गोत ही दोइ ॥१०॥ तूं मानस हम अपछरा, कैसे बनिहै बात । अबलौं काहू नां तके, येक संग दिन रात ॥१॥ राइ कह्यौ सुनि अपछरा, यह समझो चित मांहि । जब हिं पीति तन ऊपजै, जात गोत सुधि नांहि ॥३२॥