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[कवि जान कृत साहिजहां फरमान दिय, मारि लेहु राठौर । जैसी बेअदबी बहुर, ज्यों न करै को और ॥६६१।। तबहि गुरजबरदार सब, चहुंधा लगे अपार । गुरजनि सौं ढाह्यो बुरज, गिरत लगी बहुबार ॥९६२॥ जे सेवक अमरेसके, हुते आगरै मांहि । ते सुनिक सब लरि मुये, कोऊ भाज्यो नांहि ।।९६३।। राव कुटंब नागोर हौ, जोधावत बहु पास । को नां लै नागौरको, भैसी उनकी त्रास ॥९६४॥ नटे बहुत उमराव तब, ताहरखां सिरमौर । आगै है असे कह्यो, मै पाऊं नागौर ॥९६५।। का मजाल जोधानकी, उतहि सके ठहराइ । हुकम रावरौ है बली, पलमें देऊं उडाइ ।।९६६॥ सुनि आनंद्यो छत्रपति, लिख दीनौ नागौर । ताहरखां पतिसाहके, जियमै राखी ठौर ।।९६७।। पातसाह फुरमान लिख, टेरै दौलत खांन । मनसब हूं डेढ़ौ कर्यो, और बढ्यो बहु मांन ॥९६८।। काबलमे दीवांन है, चल्यौ जात फुरमान । ताही मै यौ छत्रपति, पूछे ताहर खांन ।।६६९।। पिता तिहारौ आइ है, तब जैहै नागौर । कै तूं पहले जाइ कै, काढहिंगौ राठौर ॥९७०॥ इन्हन कह्यो फुरमांन हौ, बांधौ अपने सीस । अबहि जाइ जोधानिकौ, काढौ बिसवा बीस ॥९७१॥ हर्षवंत हौ छत्रपति, दयौ आनि सिरपाव । आदुर दै नागौर दै, कियो बड़ौ उमराव ॥९७२॥ इनको सुत सरदारखां, सग हुतौ दुतिरास । मनसब देकै छत्रपति, राख्यो अपने पास ॥९७३।।