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[कवि जान कृत
पातसाह उतते उतरि, चले वोर कसमीर । अलिफखांन राखें उतहि, साहस सत्त सधीर ।।२।। सोर भये फिर ठटामै, तब टेर्यो दीवांन । उतहिं पठायो छत्रपति, दै बहु प्रादुर मान ।।८२६॥ ठटा जाइ साध्यो भलै, अलिफखांन दीवान । हरख वंत सुन के भयो, जहांगीर सुलतान ॥८२७॥ सोर पर्यो फिर कांगरै, सुन्यो दिली सुलतांन । तब दल बल बहु संग दै, पठयो सादक खांन ।।८२८। भये पहारी येक सब, भले लगाये हाथ । आगै पांव न धर सक, सादक खांको साथ ॥२९॥ बात सुनत पतसाहन, पठय दयो फुरमान । तबहि ठटातै कागरै, फिर आये दीवांन ॥८३०॥
आये जबहि दीवांन जू, कपे हार पहार । मिलके सकल पहारिये, आये करन जुहार ।।८३१॥ सादिक खा देखत रह्यौ, आवत ही दीवांन । मिले पहारी आइ कै, धन रजवट चहुवांन ।।८३२।। काबिलके भुमिया फिरे, परी बहुत ही रौर । तब आपुन पतिसाह चलि, आये है लाहौर ॥८३३॥ टेर लये है अलिफखां, काविल पठवन काज । चक्रवती चहुवान तब, आयो दल बल साज ।।८३४।। लक्खी जंगलकी तबहि, आई बहुत पुकार । भटी ढुढ़ी डोगर बटू, कीनौ मुलक उजार ॥८३५।। बादसाह सोचत यहै, को पठऊ उह ठौर । लक्खी जगलके भोमिया, गहि आने लाहौर ॥८३६।। आसिफखा तव यो कह्यौ, असो और न कोइ । अलिफखान चहुवांनतै, यह मुहिम सर होइ ।।८३७॥ विदा कीये तब अलिफखा, दे घोरा सरपाव । चाहुवान दल साजकै, चले जैतकै चाव ॥३८॥