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क्यामखां रासा]
बात सुनी कहलूरिये, आवतु है दीवांन । प्राइ मिल्यौ दै पेसकस, दमका गज केकान ।।८१२॥ पठय दयो कहलूरिया, राजा ढिगु दीवांन । देख विकरमांजीत तब, लाग्यो करन वखांन ।।८१३।। जहांगीर मानी नही, विक्रम करी जु बात । यह लिख्यो तुम कांगुरो, लीजहु जिह तिह घात ।।८१४।। नगरकोट घेरौ पर्यो, बहुरि लगे दल साहि। टूट्यौ गढ़ छत्रपत्तिकै, पूजी मनकी चाहि ।।८१५॥ राजा विक्रमजीतनै, हेर्दू तुरक बुलाइ । सगरै दलसौं जान कहि, बात कही समझाइ ।।१६।। कर आयो है कांगरी, राखहु करि के गाढ़। जोया गढ ऊपर चढ़े, बढ़े मान ह वाढ़ ॥८१७।। तब हिंदुवन मिलि यों कह्यौ, बिदाम कैकौ देहु । के तुम गढ़ मैं रहनकौं, नांव न हमसौ लेहु ।।८१८॥ राजा विक्रमजीतने, तक्यो वोर दीवांन । हौ रहिहौं के तुम रहौ, रहि न सकत को आंन ।।८१६॥ डिष्ट करी करतार पर, रहे उतहि दीवांन । पातसाह हरखे सुनत, बढ़यो मन सब मांन ॥२०॥ छत्रपतिकै चित्तमै भई, गढ़ देखन की चाहि । हित सौं आये कांगरे, जहांगीर पतिसाहि ॥२१॥ जहांगीर दीवांनको, पठयो यहै लिखाइ। तुम जिनसौं है आइहौ, हम देखेंगे आइ ।।२२।। पातसाह गढ पर चढे, लगे पाइ दीवांन । दिलीपतिनै दिल सहित, दीनी प्रादुर मांन ॥२३॥ नौछावर पतिसाह पर, कीनी बहुत दीवांन । जहांगीर अति प्यार कर, दीनौ गज केकांन ।।८२४॥