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[कषि जान छत 'दच्छिनमै दीवान ज, घरहौ दौलत खांन । सीवारी सब दल मले, अपने ही भुज पांन.॥७५३।। बीदावत चोरी करै, बरज्यो मानत नांहि । दौलतखां दल कर चढ्यौ, रोस धरयो मन मांहि ॥७५४।। बीदावत लरि नां सके, भाजे बदन दुराइ । गांव फूक बहुरे मियां, जैत नीसांन बजाइ ॥७५५।। पाटौधै जु रसूलपुर, कूरम बसत अपार । मग मारत चोरी करत, दरगह भई पुकार ॥७५६।। कह्यौ महोबत खांनसूं, तब अझै पतिसाहि । कूरम धूर मिलाइ है, असौ कोऊ आहि ।।७५७।। कह्यौ महोबत खांन तब, असों दौलत खांन । सुनत छत्रपति मया करि, टेरे लिख फुरमांन ॥७५८।। मिले जाइ अजमेरमैं, दूलह दौलत खांन । जहांगीर बहु प्यार करि, दीनौ प्रादुर मांन ॥७५६।। पातसाह असे कह्यौ, सूजावत है चोर । छीन लई है सगर पैं, पटी आपनै जोर ॥७६०॥ पटी लेहु जागीरमैं, उनको देहु निकार । जो तुम ते यों होत नां, उतर देहु बिचार ॥७६१।। दौलतखां तसलीम करि, असे कियौ बिचार । लरहिं तौ काटौं सीस उन, ना तर देऊं निकार ॥७६२॥ दयो तुरी सरपाव तब, जहांगीर परबीन । जुगल पटी दीवांनकै, मनसबमैं लिख दीन ।।७६३॥ बिदा होइ पतिसाहते, आये दौलत खांन । अपनी रज भुज बल मंगन, गनत न काहू ांन ॥७६४॥ कछवाहनिसौ यों कह्यौ, दौलतखां चहुवांन । पटी हमारी छाड़ि के, जाहू कहूं तुम ांन ।।७६५॥