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[कवि जान कृत चाहुवाँन तुंवर दुतीय, तीजौ आहि पंवार । आधेमें सगरे कुली, साढ़े तीन बिचार ।।६३६।। जैसे, सब बाजित्रमैं, है बड़डौ नीसांन । तैसै सब ही जातमै, बडो गोत चहुवांन ।।६३७।। फदन खानु सौं यों कह्यो, छत्रपति अकबर साहि । हमसौं तुम नातौ करहु, पूजै मनकी चाहि ।।६३८।। अकबरकौं बेटी दई, फदन खानुं चहुवांन । बढ्यौ प्यार बहु प्यारमै, अति सुख उपज्ये प्रांन ।।६३९।। पातसाहको नां परै, भुमियनको पतियार । हेंदू गुमरह होत हैं, फिरत न लावै बार ॥६४०।। तौ हौं मनसब देउ तुम, जो तुम देहु जमांन । तब सबके जामिन भये, फदन खानुं चहुवांन ॥६४१॥ राइसालकी बांहि गहि, फदन खानुं सुलतांन । दरबारी करवाइ के, द्यायो मनसव मांन ॥६४२॥
फदन खानै बीदावत भगायो ॥दोहा॥ बीदावत नाहिंन रहत, चोरी करि करि जांहि ।
फदन खांन दीवानने, रोस धर्यो जिय मांहि ॥६४३॥ बदत न बीकानेरको, फदन खांनु दीवांन । दल कर बीदाहद गये, देत निडर नीसांन ॥६४४॥ पहुंचे छापर दूंनपुर, बीदे गये पराइ। लर न सके दीवांनसौ, छूटे सबके पाइ ॥६४५।। बीदाहदहि विध्वंस के, आये है दीवांन । वीदावत बन्यों चले, करि चोरीकी आन ॥६४६।।
फदन खाने छापौली वा पूष मारी ॥दोहा॥ निरबाननि ऊपर चढ़े, करि के कोप दीवांन ।
लये सुभट पखरैत बहु, देत जैत नीसांन ॥६४७।।