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दौलतखांसी खेत चढि, लरै सु भै मान भरमै फिरं, दुर्जन
सौ
[ कवि जांन कृत
कौन ।
भौन ॥ ४९२ ॥
छांडै
झांकनकी प्रांन ।
धाक
बैरी आये नाक सव, घर प्राक ढाक छपते फिर, हाक बिरद बहत इन बात के, दौलतखां ना भाजौ जो आइ हैं, लरन सात सुलतान ॥ ४६४ ॥ और करी ही आन यहु, नाहिन लेउ अकोर । जैसी कौड़ीको गनौ, तैसी लाख करोर ||४६५|| और कहत हे बात यहु, जौ बिन पावै कोइ । कौड़ी हाथ न लाइ हो, अरब खरब जो होइ ||४६६ || आवै जिती अंगुस्ट तर, सीवन दार्बन देउ । और पराई भूमिकैं रंचक दाबंन लेउ ॥४६७ दौलतखां ही कछू, रचनहारकी जोत । बचन जु मुखते उच्चरत, सोई निहचै होत ॥४६८ ॥ बीका ढोसी गयो हो, उतते प्रायो भाजि । ...... रंन चित चोख घरि चल्यो उतहि दल साजि ||४६६ ॥ पाटोधे डेरा भयो, तब पठये परधांन ।
,
गुमांन ॥ ५०० ॥
श्राइ ।
चहुवांन ॥ ४९३ ॥
दीवांन ।
करिकै बहुत
लूनकरन चिट्ठी लिखी, दौला चीठी देखिते, बैगी
मोपे
भुगत
जलालकौ पूत ।
चीठीमै मूत ||५०२ ||
जौ अपनी चाहें भलौ, तौ कछु बाचत ही प्रति पर्जर्यो, खां कह्यौ कांम लै भाड़कौ, या परधांननिकै देखते, मूत्यौ चीठी माहि । जरि बरिकै क्वैला भये, बोल सके कछु नांहि ॥ ५०३ || बांधी अंचर बसीठके, बारू रेत मंगाई । लूनैकै सिर रेत है, जो नां लरिहँ आई ||५०४||
पठाइ ॥ ५०१ ॥