________________
तत्त्वानुमासन
२०२ "यथायोग्य तंजली आदि पारणाओको धारण करने वाला योगी उदग्र (कर) ग्रहांका भी बहुत शीघ्र निग्रह यादि पार लेता है।" (पूर्वपद्यमे असम्बद्ध अयं ।)
२०३ "महामउसके मध्यमे विराजमान यह योगी स्वयं इन्द्रको पाल्पना करता है तया फिरीट गुटलको धारण करने वाला वचास्न लिये हुए मह (?) को गल्पना गरता है।"
२१२ "अतः नगरमीभाय सफल हो जानेमे यर्यात् नमरमीभावके पूर्ण प्रगट हो जानेगे उस योगीको मिमी प्रकारका विभ्रम नहीं रहता।"
२४८ (तद्वघापरमनिच्छतां)-"क्योकि वे इन पारोको व्यापक नहीं मानते हैं।"
२४६ (अनेकान्तात्मफत्त्वेन व्याप्तायत समाजमो) "क्रम नौर भकम अर्गाव अस्तित्व नास्तित्व और काव्य अवक्तव्य ये दोनों अनेपान्तरूपसे ही व्याप्त है" ('मत्र'का विवक्षित लयं 'बन्धादिचतुष्टय'को घोट दिया गया और कम-मझमका विचिम अर्थ प्रस्तुत किया गया )
३५६-५७. "तपा पुणषमूर्ति विजयदेय दीक्षागुरु थे तया जिनके चारित्रकी फोति गारो ओर फैल रही थी ऐसे एक नागसेन नामक मुनि हुए थे।" ' उन्ही अत्यन्त "नागसेनमुनिने..." तत्त्वानुमासननामका अन्य वनाया।"
इन नमूनोपरसे पाठक स्वय समझ सकते हैं कि अनुवाद कहाँ तक मूल के अनुरूप हुआ है।
दूसरा हिन्दी अनुवाद श्री धन्यकुमार जैन एम० ए० इन्दौर-द्वारा निर्मित होकर 'अध्यात्मग्रन्थसग्रह' नामक एक समहान्यमे आचार्य सूर्यसागरसंघ मन्दसौर (मालवा) से वीर स० २४७२ (सन् १९४६) मे प्रकाशित हुआ है, जिसके प्रकाशक हैं श्रीलक्ष्मीचन्द वर्णी, ऐसा गुजराती अनुवाद के निवेदन' और 'वे बोल'परसे मालूम पड़ा है । प्रयत्ल करनेपर भी यह अनुवाद अपने को दिल्लीमे प्राप्त नहीं हो सका और श्रीधन्यकुमारजी