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________________ प्रस्तावना १०६ "इस ध्यानमे धातुपिंडमें ठहरा हुप्रा जो ध्येय पदार्थ है उसका ध्यान किया जाता है इसीलिए इस ध्यानको केवल ध्येय पिंडस्थ कहते हैं।" १३८. "वहुत कहनेसे क्या ? ध्यान धारण करनेवालेको यह वात यथार्थ रीतिसे जान लेना चाहिये कि ससारमे जो कुछ ध्येय है वह मध्यस्थ कहलाता है" (माध्यस्थ्य तत्र विभ्रता)। य १७६ “सम्यक् ध्यान करने वाला यह आत्मा ज्यो-ज्यो अपने आत्मामें स्थिर होता जाता है त्यो-त्यो उसकी समाधि वा निश्चल ध्यानका कारण भी स्पष्ट होता जाता है " (समाधिप्रत्ययाश्चाऽस्य स्फुटिष्यन्ति तथा तथा)। १८३ "सबसे पहले पूरक वायुके द्वारा आत्माके आकारकी कल्पना करनी चाहिये फिर रेफरूपी अग्निसे स्थिर रहना चाहिये तथा अपने शरीरके द्वारा कर्मोको जलाना चाहिये और अपने आप उसकी भस्मका विरेनन करना चाहिये ।" १८५. ....."अनुक्रमसे मारुती तेजसी और पार्थिवी धारणाका प्रारभ करना चाहिये ।" ( 'पाप्या' की जगह 'पार्थी' पाठ बनाकर उसका 'पार्थिवी' अर्थ किया गया है, जो कि बडा ही विचित्र जान पडता है । कही अग्रेजीके अर्थ (earth) शब्दसे तो यह 'आर्थी पद नही बनाया गया !!) १८६ "तदनन्तर पाचो स्थानोमें धारण किये गये पाचो पिंडाक्षररूप (पपिंडाक्षरान्वित ) पचनमस्कारमत्रसे समस्तक्रियाएँ पूर्ण करनी चाहिये" (विधाय सकलीक्रिया)। २०१ "जैसे कि-महामुद्रा (ध्यानके आसन) महामत्र (असि आ उ सा) और महामडलका आश्रय कर मत्री मरुभूति अपने शरीरको सफल कर पार्श्वनाथ स्वामी हो गया।" (पूर्वाऽपर पद्योसे असम्बद्ध अर्थ, मात्रिकके स्थानपर मत्री मरुभूतिकी अन्यथा कल्पना और 'सकलीकृतविग्रह' को 'सफलीकृतविग्रह' बनाकर विपरीत अर्थका किया जाना, ये सब बातें यहाँ खास तौरसे ध्यान देने योग्य हैं ।)
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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