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________________ ८२ तत्त्वानुशासन मुद्रित शुद्ध पाठको अशुद्धरूप भी दे दिया गया है; जैसे 'निष्पन्दलोचनो' को 'निष्पदलोचन' (६३) और 'सकलीकृतविग्रह' को 'सफलीकृतविग्रह (२०१)। मुद्रित मूलपाठकी अशुद्धियो, शुद्धको अशुद्ध वना देने और कहींकही अर्थका ठीक प्रतिभास न होनेके कारण इस अनुवादमे बहुतसी अशुद्धियो, गलतियो एव बृटियोको अवसर मिला है, जिनका ठीक आभास करानेके लिये ऐसे अनुवादोके कुछ नमूने पद्याइसहित नीचे प्रस्तुत किये जाते हैं, जिनमे कही-कही मूल-वाक्योको भी कोष्ठकके भीतर अनुवादके साथ दे दिया है, जिससे विज्ञपाठक सहज ही अनुवादकी स्थितिसे अवगत हो सकें , शेषके लिए मूलवाक्यो तथा उनके इस ग्रन्थमे दिये हुए अनुवादको तुलना करके देखना होगा : १. (पराऽपरगुरून्नत्वा)-"प्राचीन अर्वाचीन समस्त गुरुओको नमस्कार कर।" १२ "वन्धके जितने कारण हैं उनमे सबसे पहले मोह वा मिथ्या. दर्शन ही कहा गया है, मिथ्याज्ञान तो केवल मत्रीपनेका काम करता है अर्थात् मिथ्याज्ञान दर्शनका सहायक है।" । ५७ "एक, प्रधान, मालवन और मुख ये सव पर्यायवाचक शब्द हैं तथा चिंता, स्मृति, निरोध और उसका उसमें तल्लीन होना ये भी सब पर्यायवाचक शब्द हैं।" ५६. "क्योकि व्यग्रता अज्ञान है और एकाग्रताको ध्यान कहते हैं।" १०४. (इच्छन्दूरश्रवादिक)-"सुनाई देने आदि दोषोको दूर रखनेकी इच्छा करता हुमा।" १०६. "अथवा जिसके मध्यमे क्षोणीमडल विराजमान है और जो मायासे तीन वार घिरा हुआ है ऐसे गणघरवलययत्रका ध्यान करे तथा उसकी पूजा करे।" (पूर्वपद्यसे असम्बद्ध) १०८ (नामध्येयमवेहि तत)--"उसे नामध्यान कहते हैं।" ऐसे ही आगे स्थापनादि ध्येय-विषयक पद्योमे 'ध्येय'का अर्थ 'ध्यान' किया है।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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