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प्रस्तत्वना
भन्यजीवोको बडा ही महत्वपूर्ण आशीर्वाद दिया है और वह यह कि 'वस्तुके याथात्म्य(तत्त्व)का विज्ञान श्रद्धान और ध्यानरूप सम्पदाएं भव्यजीवोंको अपने स्वरूपकी उपलब्धिके लिए कारणीभूत होवें (२२५) । इसके बाद ग्रन्यकी प्रशस्ति और अन्त्यमगल है, जिसका कितना ही परिचय प्रस्तावनाले प्रारम्भमे दिया जा चुका है।
६. ग्रन्थके अनुवाद और उनकी स्थिति इस ग्रन्थपर सस्कृतादिकी कोई भी टीका उपलब्ध नहीं है और न उसके रचे जानेका कही कोई उल्लेख ही मिलता है। अनुवाद भी कोई पुराना सुनने या देखनेमे नहीं आया। माणिकचन्द दि० जनग्रन्थमालामे मूलग्रन्थके प्रकाशित हो जानेके बाद सबसे पहले प० लालारामजी शास्त्रीने इसे हिन्दीमे अनुवादित किया है । यह हिन्दी-अनुवाद मूनसहित 'अन्यत्रयी' नामके एक सग्रहग्रन्थकी आदिमे भारतीय जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी सस्था कलकत्तासे वीरसंवत् २४४७ (सन् १९२१)के ज्येष्ठमासमें प्रकाशित हुा है और उसे पं० पन्नालाल बाकलीवालने प्रकाशित किया है । इस मुद्रितप्रतिमे, जो ८० पृष्ठोपर है, मूलपाठ मारिणचन्दनन्यमालामें मुद्रित प्रतिसे लिया गया है, वहुधा उसके अशुद्ध पाठोको ज्योका त्यों रहने दिया गया है, जैसे मोहश्च प्राक प्रकीर्तित. (१२), व्यग्न झज्ञानमेव (५९), घातुपिण्डे (१३४), पाश्र्वनाथोमवन्मत्री (२०१), प्राकार मरुता पूर्य (१८४), श्रीनागसेनविदुषा (२५७)। कही-कही कुछ मोटी अशुद्धियोका सशोधन किया गया है, जो कही-कही ठीक बना है; जैसे 'अक्षमात्' का 'प्रक्षमान' (३६), 'जय' का 'जप' (८०), 'धेय' का 'ध्येय' (१२२), 'नाल व्यते' का 'नालम्बते' (१४५), 'भावार्ह' का 'भावार्हन्' (१९०), 'उद्य' का 'उद्घ' (२५६) । और कही-कहीं ठीक नही बना, जैसे 'परम' का 'प्रशमः' के स्थानपर 'परमा' (१३६), 'अवादिसत' का 'प्रवादि तत्' के स्थानपर 'अवादिक्षत्' (१४२), 'तैजसीमाथा' का 'तेजसीमाप्या' के स्थानपर तंजसीमार्थी । कहीं-कहीं