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तत्त्वानुशासन
चूकि मोक्षसुखकी तुलनामे ससारका बडेसे वडा सुख भी नगण्य है इस लिये धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुपार्थोमे मोझपुरुषार्थको उत्तम माना गया है । यह मोक्षपुरुषार्थ किनके बनता है-कौन इसके स्वामी अथवा अधिकारी हैं ? इस शकाका समाधान करते हुए यह स्पष्ट घोपणा की गई है कि यह मोक्षपुरुपार्थ स्याद्वादियो-अनेकान्तवादियोंके ही बनता है, एकान्तवादियोके नहीं, जो कि अपने शत्रु आप होते हैं (२४७) । इसीसे स्वामी समन्तभद्रने एकान्तग्रह-रक्तोको स्व-पर- वैरी बतलाया है और यह स्पष्ट घोपणा की हैं कि उनके कुशल (सुखहेतुक) और अकुशल (दु खहेतुक) कर्मकी तथा लोक-परलोकादिकी कोई व्यवस्था नही बनती १ । एकान्तवादियोके बन्ध, मोक्ष, वन्धहेतु और मोक्षहेतु यह चतुष्टय भी नही बनता,क्योकि इन चारोमे व्याप्त होनेवाले तत्त्वकोअनेकान्तको-वे स्वीकार नही करते (२४८) । इसके बाद बन्धादिचतुष्टयके न बननेका सहेतुक स्पष्टीकरण किया गया है (२४६-२५१) और फिर यह सूचित किया गया है कि चूकि धर्मादि चतुष्टयरूप पुरुषार्थमे ही नही किन्तु इस बन्धादिचतुष्टयमे भी जो सार पदार्थ है वह मोक्ष है और वह ध्यानपूर्वक होता है--ध्यानाराधनाके विना मोक्षकी प्राप्ति नहीं बनतो-~-यह मानकर ही मेरे द्वारा ध्यान-विषय ही थोडा प्रपचित हुमा अथवा कुछ स्पष्ट किया गया है (२५२)।
अन्तमे ग्रन्थकारमहोदयने ध्यान-विषयको गुरुता और अपनी लघुता व्यक्त करते हुए लिखा है कि 'यद्यपि यह ध्यान-विषय अत्यन्त गम्भीर है
और मेरे जैसोकी यथेष्ट पहुँचसे बाहरकी वस्तु है, तो भी ध्यान-भक्तिसे प्रेरित हुआ मैं इसमे प्रवृत्त हुआ हूँ। इस रचनामे छद्मस्थताके कारण अर्थ तथा शब्दोके प्रयोगमे जो कुछ स्खलन हुआ हो या त्रुटि रही हो उसके लिये ध्रुतदेवता मुझ भक्तिप्रधानको क्षमा करें(२५३, २५४) । साथ ही
१. कुशलाऽकूश्ल कर्म परलोकश्च न क्वचित् । एकान्तग्रहरक्त षु नाय स्व-पर-वैरिषु । (देवागम )