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प्रस्तावना
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शाकिन्यां नाशको प्राप्त हो जाती हैं-अपना कोई प्रभाव जमाने नही पाती-और क्रूरजीव क्षणमात्रमे क्रूरता छोडकर शान्त बन जाते हैं (१९६-१६६)।
(१३) ध्यान-द्वारा कार्य-सिद्धिके व्यापक सिद्धान्तका निरूपण करते हुए बतलाया है कि जो जिस कर्मका स्वामी अथवा जिस कर्मके करनेमे समर्थ देवता है उसके ध्यानसे व्याप्तचित्त हुआ ध्याता उस देवतारूप होकर अपने वाछित कार्यको सिद्ध करता है (२००)। इसके बाद वैसे (तद्देवतामय) कुछ ध्यानो और उनके फलोका निर्देश किया गया है, जिसमे पार्श्वनाथ, इन्द्र, गरुड, कामदेव, वैश्वानर, अमृत और क्षीरोदधिरूप ध्यानो तथा उनके फलोका खास तौरसे उल्लेख है (२०१-२०८) ।
और उपसहारमे यह सूचित किया गया है कि 'इस विषयमे बहुत कहने से क्या? यह योगी जो भी काम करना चाहता है उस कर्मके देवतारूप स्वय होकर उस-उस कार्यको सिद्ध करलेता है। शान्ति कर्मके करनेमे वह शान्तात्मा और क्रूरकर्मके करनेमे क्रू रात्मा होता हुआ दोनो प्रकारके कार्योंको सिद्ध करता है (२०६, २१०)।
(१४) उक्त शका-समाधानका उपसहार करते हुये बतलाया है कि 'ध्यानका अनुष्ठान करनेवालोके आकर्षण, वशीकरण, स्तम्भन, मोहन, विद्रावण, निविषीकरण, शान्तिकरण, विद्वेषण, उच्चाटननिग्रह इत्यादि कार्य दिखाई पड़ते हैं । अत समरसीभावके सफल होनेसे विभ्रम (भ्रान्ति) की कोई बात नही है (२११, २१२) ।
(१५) ध्यानके परिवार की सूचना करते हुए लिखा है कि पूरण कुम्भन, रेचन, दहन, प्लवन, सकलीकरण, मुद्रा, मत्र, म डल, धारणा, कर्मके अधिष्ठाता देवोका सस्थान-लिङ्ग-आसन-प्रमाण-वाहन-वीर्य-जातिनाम-ज्योति-दिशा-मुखसख्या-नेत्रसंख्या-मुजासख्या-क्रूरभाव-शान्तमाव - वर्ण-स्पर्श-अवस्था-वस्त्र-मूषण-आयुध इत्यादि और जो कुछ शान्त तथा क रकर्मके लिये मत्रवादादि ग्रन्थोमें कहा गया है वह सव ध्यानका