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________________ ७६ तत्त्वानुशासन गई है कि हमारे उक्त ध्यान-कथनमे 'भाव अर्हन्त' विवक्षित है-द्रव्यमहन्त नही । जो आत्मा अर्हध्यानाविष्ट होता है-अर्हन्तका ध्यान करते हुए उसमे पूर्णत: लीन होजाता है-वह उस समय भावसे अर्हन्त होता है, उस भाव-अर्हन्तमे ही महन्तका ग्रहण है । अतः 'प्रतस्मिस्तद्ग्रह.' का -जो जिसरूपमे नही उसे उसरूपमे ग्रहणका-दोष नही पाता (१८६) । जो आत्मा जिस भावरूप परिणमन करता है वह उस भावके साथ तन्मय होता है। अत अहध्यानसे व्याप्त आत्मा स्वय भाव-अर्हन्त होता है (१६०)। मात्मज्ञानी आत्माको जिसभावसे जिसरूप ध्याता है उसके साथ वह उसी प्रकार तन्मय हो जाता है जिस प्रकार कि उपाधिके -साथ स्फटिक (१९१)। (११) अथवा सर्वद्रव्योमें भूत और भावी स्वपर्यायें तदात्मक हुई द्रव्यरूपसे सदा विद्यमान रहती हैं । अत यह भावी अर्हत्पर्याय भव्यजीवोमे सदा विद्यमान है, तब इस सदरूपसे स्थित अर्हत्पर्यायके ध्यानमे विभ्रमका क्या काम ? (१६२, १९३) । यदि किसी तरह इस ध्यानको भ्रान्तरूप मान भी लिया जाय तो इससे फलका उदय नही बन सकेगा; क्योकि मिथ्याजलसे कभी तष्णाका नाश नही होता-प्यास नहीं बुझती । किन्तु इस ध्यानसे ध्यानवतियोके धारणाके अनुसार शान्तरूप और क्रू ररूप अनेक प्रकारके फल उदयको प्राप्त होते हैं ऐसा देखनेमे आता है (१९४, १९५)। (१२) उक्त ध्यानके फलका स्पष्टीकरण करते हुए उसे मुक्ति तथा भुक्तिका प्रदाता लिखा है। चरमशरीरियोके लिये वह मुक्तिका और दूसरोंके लिए मुक्तिका कारण बनता है, जो उस ध्यानसे विशिष्ट पुण्यका उपार्जन करते है । ज्ञान, श्री,आयु. आरोग्य, तोष, पोष, शरीर, धर्य तथा और भी जो कुछ प्रशस्तरूप वस्तुएं इस लोकमे हैं वे सब ध्याताको इस ध्यानके बलसे प्राप्त होती हैं । उस अर्हन्त अथवा सिद्ध के ध्यानसे व्याप्त आत्माको देखकर महाग्रह-सूर्य-चन्द्रमादि-कप्रकम्पित होते हैं,भूत तथा
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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