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प्रस्तावना
लोकन है वही नैरात्म्याद्वैतदर्शन है ।' अन्यात्मरूपके अभावका नाम 'नैरात्म्य' है और वह स्वात्माकी सत्ताको लिये हुए होता है अत. एकमात्र स्वात्मा के दर्शनका नाम ही सम्यक् नैरात्म्यदर्शन है। जो योगी स्वात्माको अन्यसे सयुक्त देखता है वह द्वैतको देखता है और जो अन्य सब पदार्थोंसे, जो कथचित परस्पर परावृत्त हैं, आत्माको विभक्त देखता है वह अद्वैतको देखता है (१७४-१७७) ।
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(८) अकार - ममकारके भावसे रहित योगी, एकाग्रतासे आत्माको देखता हुआ, आत्मामें सचित हुए कर्ममलोका जहाँ विनाश करता है वहाँ आने-वाले कर्ममलोको भी रोकता है और इस तरह विना किसी विशेष प्रयत्नके सवर तथा निर्जरा दोनो रूप प्रवृत्त होता है ( १७८ ) । इस प्रकार एकाग्रतासे आत्मदर्शन के ये दो फल हैं। ये दोनो फल एक ही शुद्धात्मभावको दो शक्तियोंके कारण उसी प्रकार घटित होते हैं जिस प्रकार सचिक्कताका अभाव हो जाने पर पहलेसे चिपटी हुई धूलि स्वय झड जाती है। और नई घुलिको आकर चिपटनेका कोई अवसर नहीं रहता ।
(E) इस नैरात्म्यात दर्शनको घर्म्यं और शुक्ल दोनो ही ध्यानोका ध्येय बतलाते हुए विशिष्ट ज्ञानियोको स्थूल वितर्कका अवलम्बन लेकर इसके अभ्यासकी प्रेरणा की गई है ( १८०-१८२ ) । साथ ही अभ्यासके क्रमको अति संक्षिप्त सूचनामात्र विधि पांच पद्योमे निर्दिष्ट की गई है, जिसमे आत्माको निर्दिष्टलक्षण अर्हन्तके रूपमें अथवा सिद्धके रूपमें घ्यानेका विधान है (१८३-१८७) ।
(१०) जो वस्तु जिसरूपमें स्थित है उसे उसरूपमे ग्रहण न करके विपरीतरूपमे ग्रहण करना भ्रान्तिका सूचक होता है । अत अपना आत्मा जो अर्हन्त नहीं उसे अहंन्त रूपमे ध्यानकरनेवाले आप जैसे सत्यपुरुषोके क्या म्रान्तिका होना नही कहा जायगा ? ऐसी शिष्यकी शकाका उल्लेख करके (१८८) आगे अनेक पद्योमे उसका सुन्दर समाधान प्रस्तुत किया गया है, जिसमे सबसे पहले मुख्य बात यह कही
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