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________________ ७४ तत्त्वानुशासन "अचेतन (कभी) मैं (प्रात्मा) नहीं होता, न मैं अचेतन होता हूँ, मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, मेरा कोई नही है, और न मैं किसी दूसरे का हूँ।" (१५०) "इस ससारमे मेरा शरीरके साथ जो स्व-स्वामि-सम्बन्ध हुआ है-शरीर मेरा स्व और मैं उसका स्वामी बना हूँ तथा दोनोमे एकत्वका जो भ्रम है वह सब भी परके निमित्तसे है, स्वरूपसे नहीं।" (१५१) (४) स्वसवेदनका लक्षण देकर यह बतलाया है कि वह स्व-परज्ञप्तिरूप होनेसे उसका स्वात्मासे भिन्न दूसरा कोई करण नही होता । (१६१,१६२) और फिर स्वसवेद्य आत्माका स्वरूप तीन पद्यो (१६३१६५)मे देकर यह सहेतुक सूचित किया है कि वह इन्द्रियज्ञान तथा मनसे दिखाई देनेवाला नही और न तर्क करनेवाले उसे देख पाते हैं (१६६) । इन्द्रियो तथा मनका व्यापार रुकने पर अतीन्द्रिय ज्ञान स्पष्ट होता है । अत अपने स्वसवेद्य रूपको स्वसवित्तिके द्वारा देखना चाहिये, जिसे स्वय दिखाई देनेवाली ज्ञानरूपा चेतना बतलाया है (१६७,१६८)। (५) समाधिमे स्थित हुआ योगी यदि आत्माको ज्ञानस्वरूप अनुभव नहीं करता तो उसका वह ध्यान आत्मध्यान न होकर मूर्खाको लिये हुए मोह समझना चाहिये (१६६)। (६) ज्ञानस्वरूप आत्माको अनुभव करता हुमा योगी निर्वातदेशस्थ दीपककी तरह परम एकाग्रताको तथा उस स्वात्माधीन आनन्दको प्राप्त होता है जो वचनके अगोचर है। उस समाधिकालमे परमएकाग्रताके कारण वाह्य पदार्थों के विद्यमान होते हुए भी योगीको अन्य कुछ भी प्रतिभासित नही होता। अन्यसे शून्य होता हुआ भी वह स्वरूपसे शून्य कभी नही होता-आत्माका ज्ञानस्वरूप उसकी अनुभूतिमे बराबर बना रहता है (१७०-१७३)। (७) मुक्तिके लिये नैरात्म्याव तदर्शनकी उक्तिका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि यह अन्यके प्रतिभाससे रहित जो आत्माका सम्यक् अव
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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