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________________ प्रस्तावना इस प्रकारके ध्यानका सब कुछ विपय आजाता है (१४०) । और यह ठीक ही है अहंदादि पचपरमेष्ठियोके ध्यानके बाद ऐसा कोई विषय ध्यानके लिए शेष नहीं रहता जो आत्म-विकासमे विशेष सहायक हो। परावलम्बनरूप व्यवहार-ध्यानको समाप्त कर स्वावलम्बनरूप निश्चयध्यानका निरूपण करते हुए कितनी ही आवश्यक एव महत्वकी सूचनाएं तथा प्रेरणाएं की गई हैं, जिनमेसे कुछका सार इस प्रकार है - (१) स्वावलम्बी ध्यानेच्छुकको चाहिए कि वह स्त्र तथा परको यथावस्थितरूपमे जानकर तथा श्रद्धानकर परको निरर्थक समझते हुए छोडे और फिर स्वके ही जानने-देखनेमे प्रवृत्त रहे। इसके लिए पहले श्रुत (आगम)की भावनामोसे आत्मामे आत्मसस्कारोको आरोपित करे, तदनन्तर उस सस्कारित स्वात्मामें एकाग्नता (तल्लीनता) प्राप्त करके और कुछ भी चिन्तन न करे (१४१-१४४)। (२) जो ध्याता निर्विकल्प ध्यान न बननेके भयसे श्रौतीभावनाका अवलम्बन नही लेता वह अवश्य ही मोहको प्राप्त होता तथा बाह्य चिन्तामे पड़ता है । अत. मोहके विनाश, वाह्यचिन्ताकी निवृत्ति और एकाग्रताको सिद्धिके लिए पहले श्रोती-भावनाका अवलम्बन लेना जरूरी है (१४५-१४६)। (३) श्रौती-भावनाका रूप पद्य न० १४७ से १५६ तक दिया है, जिसमे आत्माके अन्यसे भिन्न चिन्तनके प्रकारोका बडा ही सुन्दर निदेश है और वह इतना सक्षिप्त है कि उसका सार प्राय नही बनता। अत उसे मूलग्नन्थ तथा उसकी व्याख्यासे ही जानना चाहिए । यहाँ नमूनेके तौर पर तीन पद्योका केवल अनुवाद दिया जाता है - __"शरीर अन्य है, मैं अन्य हूँ, (क्योंकि) मैं चेतन हूँ, शरीर अचेतन है, यह शरीर अनेकरूप है, मैं एकरूप हूँ, यह क्षयी (नाशवान) है, मैं अक्षय (अविनाशी) हूँ" (१४६) ।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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